दयानंद राय
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के व्यक्तित्व को किसी एक पंक्ति में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि उनके व्यक्तित्व की कीर्ति रश्मियों का फलक बेहद विस्तृत है।
तब भी यह कहा जा सकता है कि वे हिन्दी साहित्य के सूर्य थे और उनकी प्रासंगिकता अनंत काल तक बनी रहेगी। आज उनकी पुण्यतिथि है।
अंग्रेजी शासनकाल में 23 सितंबर 1908 को उनका जन्म बिहार के सिमरिया में हुआ। बचपन में ही इनके पिता का देहांत हो गया इससे इनका जीवन कठिनाईयों और गरीबी में बीता।
पर गरीबी से संघर्ष और अध्ययनशीलता के बूते दिनकरजी ने ज्ञान और सम्मान दोनों हासिल किया।
हाई स्कूल के शिक्षक से लेकर भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार और राज्यसभा के सदस्य बनने तक का गौरव उन्होंने अपनी मेहनता, प्रतिभा और पांडित्य से हासिल किया।
दिनकर जी का मानना था कि विपत्ति में कायरों के भले ही पसीने छूटते हों पर उद्यमी पुरूष विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी राह बना लेते हैं।
इसलिए रश्मिरथी में दिनकर ने कहा- सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है। सूरमा नहीं होते विचलित, क्षण एक नहीं धीरज खोते।
विघ्नों को गले लगाते हैं, कांटों में राह बनाते हैं। दिनकर जी ने बचपन में ही अभावों का इतना सामना किया था कि फिर बड़े से बड़ा अभाव भी उन्हें महसूस नहीं होता था।
कठिनाईयों का सामना करने और उनपर नकेल कसने में उन्हें आनंद आता था। उन्होंने जीवन भर साहित्य साधना की थी और अपनी साहित्य साधना से जो पाया उसे अपनी कृतियों के जरिये समाज को लौटा दिया।
पटना विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीतिशास्त्र में बीए किया था पर वे संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू के गहन जानकार थे।
अक्खड़ स्वभाव के दिनकर न किसी खांचे या सांचे में बंधे न कबीर की तरह ही अपनी बात कहने में कभी पीछे रहे।
यही कारण था कि उन्होंन राज्यसभा में भरी सभा में नेहरू की आलोचना करते हुए कहा कि क्या आपने हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है ताकि सोलह करोड़ हिन्दीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाये जा सकें।
राज्यसभा सदस्य के तौर पर उनका चुनाव पंडित नेहरू ने ही किया था पर उनकी भी मुखलाफत करने से दिनकर नहीं चूकते थे।
उन्होंने लिखा-
देखने में देवता सादृश्य लगता है
बंद कमरे में गलत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा हो
समझो उसी ने हमें मारा है
वे कविता की उन्मुक्त चेतना थे। शोषण और आर्थिक असमानता के विरुद्ध उन्होंने काव्य रचनाएं की।
उर्वशी को छोड़ दिया जाये तो दिनकर की अधिकतर कविताएं वीर रस से ओत-प्रोत है। 24 अप्रैल 1974 को 65 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें नमन।
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