एक मान्यता के अनुसार भगवान विश्वकर्मा ने कराया था मंदिर का निर्माण
देवघर के बाबा वैद्यनाथ मंदिर को 12 ज्योतिर्लिंगों में नवां स्थान हासिल है। दुनिया भर के शिव भक्तों के बीच यह ज्योतिर्लिंग अपनी एक अनोखी पहचान रखता है।
इस ज्योतिर्लिंग में अनोखापन यह है कि यहां शिव के साथ-साथ शक्ति की भी पूजा होती है, इसलिए इसे शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है।
हर साल हजारों श्रद्धालु महाशिवरात्री के दिन शिव और शक्ति का विवाह देखने दूर-दूर से आते है और मन ही मन ये विचार करते हैं कि बाबा बैजनाथ का यह मंदिर आखिर किसने बनवाया और कब बनवाया?
बाबा वैद्यनाथ मंदिर का इतिहास
झारखंड के देवघर जिले में स्थित इस मंदिर के निर्माण से जुड़े कई कहानियां और किस्से हैं। कुछ कहानियां त्रेता युग से जुड़ी हैं तो कुछ आज से 600-700 साल पहले के राजा महाराजाओं से।
बैद्यनाथ मंदिर के निर्माण से जुड़ी सबसे पुरानी कहानी त्रेता युग से जुड़ी है। जब अहंकारी रावण भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर्वत पर तपस्या कर रहा था।
तपस्या के दौरान रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए एक-एक कर अपने नौ सिर काट भगवान को अर्पित कर दिए।
जब रावण ने अपना दसवां सिर काटना चाहा तो अचानक से शिव जी प्रकट हुए और रावण से वरदान मांगने को कहा।
तब रावण ने शिव जी को लंका ले जाने की इच्छा जतायी। भगवान ने रावण की इस इच्छा में हामी भरी लेकिन वरदान के साथ एक शर्त भी जोड़ दिया।
शिवजी ने रावण से कहा कि यदि तुम मुझे लंका ले जाना चाहते हो तो ले चलो, लेकिन जहां भी मुझे भूमि स्पर्श हो जाएगी, मैं वही स्थापित हो जाउंगा।
इस बात से रावण सहमत हो गया। भगवान ने एक शिवलिंग का रूप धारण कर लिया। इसके बाद रावण शिवलिंग को लेकर जा रहा था।
इसी दौरान भगवान शिव और विष्णु की एक लीला के कारण रास्ते में ही शिव लिंग का भूमि स्पर्श हो गया, और मान्यता के अनुसार वह जगह देवघर है।
इस घटना के बाद ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं ने उस शिवलिंग की पूजा की और शिवजी के दर्शन होते ही शिवलिंग को उसी जगह पर स्थापित कर दिया।
इसके बाद विष्णु के आदेश पर भगवान विश्वकर्मा ने आकर इस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया था।
एक और मान्यता के अनुसार इस मंदिर की स्थापना 1596 की मानी जाती है जब बैजू नाम के व्यक्ति ने खोए हुए लिंग को ढूंढा था।
तब इस मंदिर का नाम बैद्यनाथ पड़ गया। कई लोग इसे कामना लिंग भी मानते हैं। बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मंदिर भी हैं।
इन्हें बैजू मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था।
प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है। वैसे तो आपने देखा होगा कि भगवान शिव के सभी मंदिरों में त्रिशूल लगा होता है।
लेकिन देवघर के बैद्यनाथ मंदिर परिसर के शिव, पार्वती, लक्ष्मी-नारायण और अन्य सभी मंदिरों में पंचशूल लगे हैं।
इसे सुरक्षा कवच माना गया है। ये महाशिवरात्रि से दो दिन पहले उतारे जाते हैं। इसके बाद महाशिवरात्रि से एक दिन पहले विधि-विधान के साथ उनकी पूजा की जाती है।
इसके बाद फिर पंचशूलों को स्थापित कर दिया जाता है। इस दौरान भगवान शिव और माता पार्वती के गठबंधन को भी हटा दिया जाता है।
मंदिर के शीर्ष पर लगे पंचशूल को लेकर माना जाता है कि त्रेता युग में रावण की लंकापुरी के द्वार पर सुरक्षा कवच के रूप में भी पंचशूल स्थापित था।
वहीं, एक मत ये भी है कि रावण को पंचशूल यानी सुरक्षा कवच को भेदना आता था, लेकिन ये भगवान राम के वश में भी नहीं था।
विभीषण के बताने के बाद ही प्रभु श्री राम और उनकी सेना लंका में प्रवेश कर पाए थे। ऐसा माना जाता है कि इस पंचशूल के कारण मंदिर पर आज तक किसी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार बैजनाथ धाम ज्योतिर्लिंग के साथ- साथ शक्तिपीठ भी
बैजनाथ धाम देवघर को हार्दपीठ के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष ने अपने यज्ञ में भगवान शिव को नहीं आमंत्रित किया।
यज्ञ के बारे में पता चला तो देवी सती ने भी जाने की बात कही। शिव जी ने कहा कि बिना निमंत्रण कहीं भी जाना उचित नहीं।
लेकिन सतीजी ने कहा कि पिता के घर जाने के लिए किसी भी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं। शिव ने उन्हें कई बार समझाया लेकिन वह नहीं मानी और अपने पिता के घर चली गईं।
लेकिन जब वहां उन्होंने अपने पति भोलेनाथ का घोर अपमान देखा तो सहन नहीं कर पाईं और यज्ञ कुंड में प्रवेश कर गईं।
सती की मृत्यु की सूचना पाकर भगवान शिव अत्यंज क्रोशित हुए और वह माता सती के शव को कंधे पर लेकर तांडव करने लगे।
देवताओं की प्रार्थना पर आक्रोशित शिव को शांत करने के लिए श्रीहरि अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर को खंडित करने लगे।
सती के अंग जिस-जिस स्थान पर गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। मान्यता है इसी स्थान पर देवी सती का हृदय गिरा था।
यही वजह है कि इस स्थान को हार्दपीठ के नाम से भी जाना जाता है। इस तरह यह देश का पहला ऐसा स्थान है जहां ज्योतिर्लिंग के साथ ही शक्तिपीठ भी है।
इस वजह से इस स्थान की महिमा और भी बढ़ जाती है।
सावन महीने में शिवभक्तों से पट जाता है वैद्यनाथ धाम देवघर
साल भर यहां शिवभक्तों की यहां भारी भीड़ लगी रहती है, पर सावन महीने में यह पूरा क्षेत्र शिवभक्तों से पट जाता है।
आमतौर पर कांवरिये सुल्तानगंज की गंगा से दो पात्रों में जल लाते हैं। एक पात्र का जल वैद्यनाथ धाम देवघर में चढ़ाया जाता है, जबकि दूसरे पात्र से बासुकीनाथ में भगवान नागेश को जलाभिषेक करते हैं।
बासुकीनाथ मंदिर परिसर में अलग-अलग देवी-देवताओं के बाईस मंदिर हैं। सावन में यहां प्रतिदिन करीब एक लाख भक्त जलाभिषेक करते हैं।
जो लोग किसी समय सीमा में बंधकर जल नहीं चढ़ाते उन्हें ‘साधारण बम’ कहा जाता है। लेकिन जो लोग कावड़ की इस यात्रा को 24 घंटे में पूरा करते हैं उन्हें ‘डाक बम’ कहा जाता है।
इन्हें प्रशासन की ओर से कुछ खास सुविधाएं दी जाती हैं। कुछ भक्त दंड प्रणाम करते हुए या दंडवत करते हुए सुल्तानगंज से बाबा के दरबार में आते हैं।
यह यात्रा काफी कष्टकारी मानी जाती है। सावन में शिवलिंग पर जरूर चढ़ाएं ये 5 पत्ते, जानें इसका महत्व।
देवघर में बाबा वैद्यनाथ को जो जल अर्पित किया जाता है, उसे शिव भक्त भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में बहने वाली उत्तर वाहिनी गंगा से भरकर 105 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बाबा वैद्यनाथ को अर्पित करते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार सबसे पहले भगवान श्रीराम ने सुल्तानगंज से जल भरकर देवघर तक की यात्रा की थी, इसलिए यह परंपरा आज भी चली आ रही है।
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