सुशोभित
हम अपने बच्चों को स्कूल किसलिए भेजते हैं? केवल इसीलिए नहीं कि वे नौकरी-रोज़गार करके पेट पाल सकें।
वैसा होता तो जिन धनकुबेरों के पास सात पुश्तों तक बैठकर खाने का बंदोबस्त है, उनके बच्चे स्कूल नहीं जाते।
हम अपने बच्चों को स्कूल इसलिए भेजते हैं ताकि वो लिख-पढ़कर बुद्धिमान बनें, उनकी तर्कशक्ति विकसित हो, वो वैज्ञानिक-दृष्टिकोण विकसित करें, वो प्रत्यक्ष-अनुमान-हेत्वाभास के भेद को समझें, कोई उन्हें झूठ बोलकर मूर्ख न बना सके, कोई ठग न ले, वो शिक्षित और समझदार हों।
फिर कैसा लगता होगा इन्हीं बच्चों को स्कूल में फिजिक्स की क्लास में लॉ ऑफ़ ऑप्टिक्स पढ़कर घर लौटने के बाद कि उनके माता-पिता एक मूर्ति पर यांत्रिक प्रक्रिया से सूर्य की किरणों को रिफ़्लेक्ट किए जाते देखकर भाव-विभोर हो रहे हैं, जबकि वो उसके पीछे का साइंस अच्छी तरह समझते हैं?
θ i = θ r : द एंगल ऑफ़ इंसिडेंस इज़ ईक्वल टु द एंगल ऑफ़ रिफ़्लेक्शन। सिम्पल फिजिक्स।
ये लॉ ऑफ़ ऑप्टिक्स के नियमों के साथ आइज़ैक न्यूटन साढ़े तीन सौ साल पहले तब उलझ रहा था, जब इंग्लैंड में महामारी फैली हुई थी और वो अपने घर पर निठल्ला बैठा आराम फ़रमा रहा था।
वह 17वीं सदी थी। उसको क्या पता था कि 21वीं सदी में भी लोगों के यह पल्ले नहीं पड़ेगा।
किन्तु क्या प्रयोजन है बच्चों को विज्ञान पढ़ाने का और सृष्टि की वस्तुस्थिति समझाने का, अगर आपको उन्हें अपने जैसा ही दकियानूसी, अंधविश्वासी, पोंगापंथी बनाना है?
स्वयं ही मूर्ति बनाई है, स्वयं ही उसको मंदिर में प्रतिष्ठित किया है, स्वयं ही उस पर प्रकाश की किरण फेंकी है और स्वयं ही मंत्रमुग्ध हुए जा रहे हैं- ऐसा आत्म-सम्मोहन तो घड़े गढ़ने वाले कुम्हार में भी नहीं होता।
वह घड़ा बनते ही चाक से उसको उतारकर नीचे रख देता है। ख़ुद ही तो बनाया है, फिर आश्चर्य कैसा?
ख़ुद ही तो मूर्ति के कपाल पर सूर्य की किरण फेंकी है। पेरिस्कोप, हेलियोस्कोप में यही सब तो होता है।
साधारण वैज्ञानिक युक्तियाँ हैं, रॉकेट साइंस भी नहीं है। आश्चर्य कैसा? मूर्ति में कोई प्राण नहीं हैं। जो वस्त्र पहना दो, जैसा शृंगार कर दो, जैसी किरण फेंक दो, सब उसको स्वीकार्य है।
कहते हैं मनुष्य ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। जबकि सच यह है कि ईश्वर मनुष्य के हाथ की कठपुतली है।
आस्था और अंधविश्वास में अंतर होता है। और यों तो मैं आस्था के भी विरुद्ध हूँ, पर अगर इससे किसी दीनबंधु को अपना कठिन जीवन बिताने के लिए सांत्वना मिलती हो तो मुझे क्या आपत्ति?
हर कोई मेधावी नहीं हो सकता। पर अंधविश्वास विष के समान है। यह समाज की जड़ों में मट्ठा डाल देता है।
पतन और शोषण का उपकरण है यह। मनुष्यजाति ने सभ्यता की लम्बी यात्रा में अंधविश्वासों का एक-एक कर खण्डन किया है।
लेकिन जो समाज अंधविश्वासों को फिर से मानने लगता है, वह पीछे की तरफ़ चलने लगता है।
विमान में यात्रा कर रहा शीर्ष नेता अंधविश्वास के नफ़े-नुक़सान अच्छी तरह से समझता है। जभी तो जब प्रोटोकॉल के तहत कोई उसके इर्द-गिर्द भी नहीं फटक सकता, तब वह अपने मोबाइल में क्या देख रहा है, इसका वीडियो-फिल्मांकन करवाकर सोशल मीडिया पर अपलोड करता है। वह अच्छी तरह से जानता है कि चुनाव चल रहे हैं और लोग किस बात पर आसानी से मूर्ख बनते हैं।
यानी आपको भले लग रहा हो कि तिलक प्रभु का रहा हो, उसके बहाने अपने राजतिलक की तैयारी किसी और की ही है।
थोड़ा तो सोचो, विचारो, जागो। एक समाज के रूप में स्वयं को और कितना अशिक्षित बनाना है?
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