Monday, July 7, 2025

उड़िया समझ नहीं आई तो पंडित रघुनाथ मुर्मू ने जल-जंगल, जमीन से जुड़े वर्ण गढ़ बना दी ओल चिकी लिपि [When Pandit Raghunath Murmu could not understand Oriya, he created the Ol Chiki script based on Varna Garh associated with water, forest and land]

एक बच्चे के जुनून ने बनाई आदिवासी समाज की सबसे समृद्ध वैज्ञानिक भाषा

ओलचिकी लिपि के अस्तित्व में आने की कहानी

रांची। जमशेदपुर में जनजातीय विश्वविद्यालय की स्थापना होने जा रही है। इसका नाम ओल चिकी भाषा के जनक पंडित रघुनाथ मुर्मू के नाम पर रखे जाने का निर्णय राज्य सरकार ने लिया है। पर पंडित मुर्मू कौन थे, यह शायद कम ही लोगों को मालूम है।

दरअसल पंडित रघुनाथ मुर्मू एक ऐसा नाम है, जिसे आदिवासी समाज कभी भूला ही नहीं सकता। पंडिच रघुनाथ मुर्मू जनजातीय लिपि ओल चिकी के जनक हैं।

आइए जानते हैं कैसे अस्तित्व में ओल चिकी लिपि आया और कौन थे पंडित रघुनाथ मुर्मू।

आदिवासियों की समृद्ध भाषा संथाली के मौजूदा स्वरूप के पीछे एक आठ साल के बच्चे की जिद और जुनून है। 1925 के पहले तक यह संथाली गांवों में सिर्फ बोली जाती थी। इसके न वर्ण थे न अक्षर।

आठ साल के रघुनाथ मुर्मू ने अपनी ही भाषा में पढ़ने की ठानी। प्रकृति के उपासक आदिवासी समाज के उस बच्चे ने जल, जंगल, जमीन के संकेतों को समझकर वर्ण गढ़ना शुरू किया।

12 साल की मेहनत के बाद उस बच्चे ने संथाली भाषा की ओलचिकी लिपि का आविष्कार किया।

… तो दंत कथाओं में सिमट जाती भाषा

झारखंड के सरहदी इलाके में बसे ओडिशा के मयूरभंज जिले के डांडबूस गांव को ओलचिकी का जन्मस्थल कहा जा सकता है। करीब 500 की आबादी वाले इस गांव की में बोलचाल की मुख्य भाषा संथाली थी।

5 मई 1905 को यहां रघुनाथ मुर्मू का जन्म हुआ। पिता नंदलाल मुर्मू गांव के प्रधान और चाचा तत्कालीन राजा प्रताप चंद्र भंजदेव के दरबार में मुनीम थे। परिवार संपन्न था और पैसों की कमी नहीं।

पिता ने रघुनाथ का दाखिला उड़िया मीडियम स्कूल में करा दिया। बचपन से उनकी आदत गहराई से चीजों को जानने की रही। जो बातें समझ में नहीं आती, शिक्षकों से सवाल किया करते।

स्कूल में उड़िया में पढ़ाई होती, इस कारण कई बार शिक्षकों का जवाब उनकी समझ में नहीं आता था। क्लास में भी विषय समझ नहीं आने के कारण वे अकसर सो जाया करते।

शिक्षक कारण पूछते तो रघुनाथ संताली में पढ़ाने की जिद करते। कुछ दिनों के बाद रघुनाथ ने स्कूल जाना बंद कर दिया।

पिता नंदलाल मुर्मू ने टोका तो उन्होंने संताली मीडियम स्कूल में दाखिला कराने की जिद की। इस पर पिता गुस्सा होकर बोले- संताली भाषा का कोई स्कूल नहीं है।

स्कूल क्या, न इसका वर्ण है और न लिपि। ऐसे में फिर तू अनपढ़ ही रहेगा। पिता की बातें सुनकर रघुनाथ ने कहा-ठीक है, मैं खुद संताली लिपि बनाऊंगा।

संताली मीडियम स्कूल भी खोलूंगा। उस समय रघुनाथ 8 साल के थे। पिता की बातें उनके दिलों-दिमाग में इस तरह बैठ गई कि वे दिन-रात लिपि की खोज में लग गए। आदिवासी समाज प्रकृति प्रेमी होता है इसलिए धरती, आकाश, नदी, पहाड़, पक्षी को ध्यान में रखकर वर्ण गढ़ना शुरू किया।

पहला अक्षर धरती, दूसरा आग पर लिपि में 6 स्वर और 24 व्यंजन

ओलचिकी लिपि गढ़ते समय रघुनाथ असमंजस में थे कि वर्णों को कैसे और किस आधार पर बनाया जाए। उनसे पहले किसी ने संताली लिखने के लिए कोई आधार तैयार नहीं किया था।

ऐसे में रघुनाथ ने सबकुछ प्रकृति के सहारे छोड़ दिया। आदिवासी शुरू से प्रकृति का उपासक रहा है, इसलिए वे पेड़-पौधे, नदी-तालाब, धरती-आसमान, आग-पानी का स्मरण करने लगे। पक्षियों की आवाज समझने लगे।

घंटों नदी-आग के पास बैठकर चिंतन करने लगे। फिर पहला अक्षर धरती के स्वरूप जैसा ओत-(0) बनाया।

इसी तरह धीरे-धीरे उन्होंने धरती, आकाश, पशु, पक्षी और नदी-तालाब को आधार बना पूरी वर्णमाला की रचना कर डाली।

ओल चिकी में कई रचनाएं रच डाली

इतना ही नहीं, रघुनाथ मुर्मू ने ‘ऑलचिकी’ का अविष्कार किया और उसी में अपने नाटकों की रचना की, तब से आज तक वे एक बड़े सांस्कृतिक नेता और संताली के सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे हैं।

उन्होंने 1977 में झाड़ग्राम के बेताकुन्दरीडाही ग्राम में एक संताली विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया था। मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें गुरु गोमके (महान शिक्षक) की उपाधि प्रदान की।

रांची के धुमकुरिया ने आदिवासी साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें डी. लिट्. प्रदान किया, जुलियस तिग्गा ने उन्हें महान अविष्कारक एवं नाटककार कहा और जयपाल सिंह मुण्डा ने उन्हें नृवैज्ञानिक और पंडित कहा।

चारूलाल मुखर्जी ने उन्हें संतालियों के धर्मिक नेता कह कर संबोधित किया तथा प्रो. मार्टिन उराँव ने अपनी पुस्तक ‘दी संताल – ए ट्राईब इन सर्च ऑफ दी ग्रेट ट्रेडिशन’ में ऑलचिकी की प्रशंसा करते हुए उन्हें संतालियों का महान गुरु कह कर संबोधित किया।

गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है।

संताली भाषा व साहित्य के विकास के लिए भाषा या संस्कृति . स्क्रिप्ट पूंजी और के बाद से विकसित छोटे अक्षर दोनों अद्वितीय modern’ve है कौन सा OLCHIKI लिपि ( संताली वर्णमाला ) 1925 dully पर प्रकृति के साथ तुलना करें। (दिवस की व्यवस्था , तिथि , सप्ताह , महीना, वर्ष चाँद क्लिप के अनुसार उसकी GODDET कैलेंडर में आदि ) ( चंद्र वर्ष ) और Kherwal समुदाय में द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार किए जाते हैं अखिल भारतीय सम्मेलन फ़रवरी 1977 के महीने में बिस्तर Kundry “( पश्चिम बंगाल) में आयोजित किया। शुरुआत माह और बन कैलेंडर GODDET ‘ माघ ‘ के अनुसार माघ के पहले दिन के बाद ” संताली नया साल ” चाँद क्लिप बनें अन्य भारतीय आधुनिक भाषा विज्ञान की तरह लोकप्रिय ( माघ – Mulugh ) के रूप में जाना जाता है।

सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे

जब रघुनाथ मुर्मू ने ‘ऑलचिकी’ (ओल लिपि) का अविष्कार किया और उसी में अपने नाटकों की रचना की, तब से आज तक वे एक बड़े सांस्कृतिक नेता और संताली के सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के प्रतीक रहे हैं।

गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा – “अगर आप अपनी भाषा – संस्कृती , लिपि और धर्म भूल जायेंगे तो आपका अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा ! “

पं. रघुनाथ मुर्मू : संतालियों के धार्मिक नेता

1905 में जन्में पंडित रघुनाथ मुर्मू को संताली समाज का धार्मिक नेता का दर्जा प्राप्त है। संताल समाज के लोग उनकी तस्वीर अपने घरों में लगाते हैं और उनकी पूजा तक की जाती है। 1941 में जब रघुनाथ मुर्मू ने ‘ओलचिकी’ (ओल लिपि) का अविष्कार किया और उसी में अपने नाटकों की रचना की, तब से आज तक वे एक बड़े सास्कृतिक नेता के रूप में स्थापित हुए। गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सास्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आदोलन चलाया वह ऐतिहासिक माना जाता है।

आदिवासियों में शिक्षा का अलख जगाया

“ओल सिमेट और पारसी पोहा” ओलचिकी में उनकी प्रमुख पुस्तक है, जिसका उद्देश्य संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए भाषा के बारे में भाषाई लोगों को शिक्षित करना था।

ओलचिकी लिपि (संताली वर्णमाला) में बड़े और छोटे दोनों अक्षर 1925 से विकसित हुए हैं, इंडिक ओलचिकी लिपि को पुनः प्राप्त करने के समय उन्होंने प्रकृति की गणना की है (दिन, तिथि, सप्ताह, महीना, वर्ष आदि को व्यवस्थित करें) चंद्र क्लिप के अनुसार अपने कैलेंडर गोडेट में और सामाजिक-धार्मिक और भाषा साहित्य पहचान प्राप्त करने के लिए फरवरी 1977 के महीने में बेद-कुंदरी (डब्ल्यूबी) में आयोजित अखिल भारतीय सम्मेलन में खेरवाल समुदाय द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया।

माह और चंद्र क्लिप के बाद माघ का पहला दिन “संताली नव वर्ष” बन गया, जिसे अन्य आधुनिक भारतीय भाषाई समुदाय की तरह (माघ-मुलुग) के रूप में जाना जाता है। संताली भाषा और साहित्य पर उनके काम में यह प्राचीन भारत के खेरवाल समुदाय की पारंपरिक “सामाजिक-धर्म, सामाजिक-संस्कृति, भाषा और साहित्य पहचान” की “नकल के बजाय स्वयं की पहचान के सिद्धांत” को सटीक रूप से प्रतिबिंबित करता है।

यह भी ज्ञात है कि रघुनाथ मुर्मू द्वारा ओलचिकी लिपि विकसित करने से पहले मुज-दंधे के रूप में जानी जाने वाली एक अन्य लिपि का आविष्कार कमरबंदी सियालदा के साधु रामचंद मुर्मू ने किया था और पंडित रघुनाथ मुर्मू भी नियमित रूप से इस क्षेत्र का दौरा करते थे और उन्होंने दम्पारा के पास आश्रम बनाया है।

इसलिए आधुनिक अभियोग ओल चिकी की पटकथा के बारे में पंडित मुर्मू और साधु रामचंद मुर्मू के बीच सापेक्षता बहुत गहरी है और उनके संबंध से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह सार्वभौमिक सत्य है कि पंडित रघुनाथ मुर्मू द्वारा कैलेंडर गोडेट के तहत प्रकृति की गणना “महापुरुष” के बिना असंभव है।

1941 में जब रघुनाथ मुर्मू ने ‘ऑलचिकी’ (ओल लिपि) का अविष्कार किया, तब मयूरभंज आदिवासी महासभा ने उन्हें गुरु गोमके (महान शिक्षक) की उपाधि प्रदान की।

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उनके बारे में कहते हैं-

गुरु गोमके ने भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक एकता के लिए लिपि के द्वारा जो आंदोलन चलाया वह ऐतिहासिक है। मैं इस महान शख्सियत को नमन करता हूँ।

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