अलग राज्य के आंदोलन में जान डाल दी थी विनोद भगत ने
रांची। भूले बिरसे लीडर्स की दूसरी कड़ी जुझारू और तेज तर्रार आंदोलनकारी विनोद भगत के बारे में बतायेंगे। झारखंड के गठन को 25 साल पूरे होने वाले हैं।
बड़े संघर्ष और लंबी लड़ाई के बाद झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ था। और जब भी हम झारखंड आंदोलन की बात करते हैं, तो याद आते हैं वो दो-दो और तीन-तीन दिन के बंद, धरना, प्रदर्शन, जुलूस एवं रेल रोको आंदोलन।
इस लड़ाई को आगे बढ़ाने वाले संगठन आजसू के तेवर और इसके तेवरबाज नेताओं को कौन भूल सकता है।
इन्ही आंदोलनकारी नेताओं में एक थे विनोद भगत। विनोद भगत ने झारखंड आंदोलन की लंबी लड़ाई लड़ी।
यह विनोद भगत और उनके साथियों का ही संघर्ष था, जिसके कारण 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आजसू के नेताओं से बुलाकर बात की। तब झारखंड अलग राज्य की लड़ाई को पूरे देश ने जाना।
राज्य गठन के बाद राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गये विनोद भगत
झारखंड अलग राज्य गठन के कुछ सालों बाद विनोद भगत राजनीतिक परिदृश्य से गायब हो गये। दो ढाई साल पहले एकाएक विनोद भगत अखबारों की सुर्खियां बने।
कारण था विनोद भगत की एक तस्वीर मीडिया में आई, जिसमें उन्हें मोरहाबादी मैदान में सब्जी बेचते देखा गया। यह चौंकाने वाली तस्वीर थी।
सब्जियां बेचनी पड़ी इस आंदोलनकारी को
दरअसल, झारखंड ने कई राजनीतिक उठापटक देखे, किसी की राजनीति चल निकली तो किसी को सत्तासीन होने का मौका मिला, लेकिन झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए शुरू हुए अभियान के नायक रहे बिनोद भगत को सब्जी बेचकर अपना गुजारा करते देख सभी हैरान रह गये।
1980 और 90 के दशक में बंद और प्रदर्शन के कारण जेल जा चुके बिनोद कहते हैं कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाने से बेहतर सब्जी बेचकर गुजारा करना है।
ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन यानी AJSU के संस्थापकों में एक बिनोद भगत दो साल पहले तक मोरहाबादी में हर दिन सड़क किनारे सब्जियां बेचते रहे।
फुर्सत मिलने पर वह झारखंड के खनन क्षेत्र को लेकर रिसर्च करने जुट जाते हैं। उन्होंने कहा, ‘जैसे आर्थिक तंगी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाय बेचा करते थे, वैसे ही मुझे भी सब्जियां बेचनी पड़ी।
कई साथी निकल गये आगे
बिनोद भगत ने झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए जिन लोगों को चुना था, उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव आया और वे राज्य में मंत्री भी बने।
बिनोद 1995 में गठित झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद के काउंसलर रह चुके हैं। रांची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और पत्रकारिता में पोस्ट-ग्रैजुएशन कर चुके बिनोद धनबाद रेलवे स्टेशन में असिस्टेंट स्टेशन मैनेजर (एएसएम) थे।
झारखंड मुक्ति मोर्चा और बीजेपी के साथ समन्वय न बना पाने के कारण आज वह गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं।
झारखंड आंदोलन के लिए छोड़ दी रेलवे की नौकरी
बिनोद भगत बताते हैं कि ‘इस आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए उन्होंने 1986 में अपनी नौकरी छोड़ दी, लेकिन तब पता नहीं था कि राज्य धोखेबाजों के हाथों चला जाएगा।’
वह कहते हैं कि उन्हें सब्जी बेचने में कोई शर्म महसूस नहीं हुई। ‘भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाने से बेहतर यह काम करना है।’58 साल के बिनोद आज भी जोश से भरे नजर आते हैं।
बिनोद भगत आने वाले भविष्य को लेकर पॉजिटिव सोच रखते हैं। वह मानते हैं कि यह जिंदगी का बुरा दौर है, जो जल्द ही गुजर जायेगा।
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