Monday, July 7, 2025

भूले बिसरे लीडर्स-1,इंदर सिंह नामधारी [Forgotten Leaders-1, Inder Singh Namdhari]

जानिये, इंदर सिंह नामधारी ने क्यों कहा था मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे, तो मेरी चाल देख ले..

रांची। झारखंड के भूले बिसरे लीडर। हम एक नया सीरीज शुरू करने जा रहा है। इसका उद्देश्य है आपको झारखंड के उन नेताओं के बारे में बताना, जो कभी अर्श पर थे।

जिन्होंने झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई या एक जमाने में वे झारखंड की राजनीति के केंद्र में थे।

इन नेताओं के इशारे पर एक जमाने में झारखंड की राजनीति की दिशा तक तय होती रही। इनमें से कई नेता हमारे बीच नहीं हैं।

कुछ हैं, जो अब सक्रिय नहीं हैं या हाशिये पर हैं। ऐसे ही कुछ नेताओं की गाथा हम इस सीरीज में पेश करने जा रहे हैं।

इसकी पहली कड़ी में बात झारखंड राज्य के पहले विधानसभा अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी की।

झारखंड के पहले स्पीकर थे इंदर सिंह नामधारी

15 नवंबर 2000 को जब झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ, तब बीजेपी की सरकार बनी और बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने थे।

इसके बाद इंदर सिंह नामधारी राज्य के पहले स्पीकर यानी विधानसभा अध्यक्ष बने। नामधारी एकमात्र व्यक्ति हैं, जिन्हें दुबारा झारखंड का स्पीकर बनने का मौका मिला। इतना ही नहीं, वह तीसरी बार भी झारखंड के स्पीकर बने।

बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आया था परिवार

1947 में जब देश आजाद हुआ, तब देश का भी बंटवारा हुआ। बंटवारे के बाद जब लाखो शरणार्थी भारत आ रहे थे ,तब उनके एक परिवार नामधारी का भी था।

इस परिवार की गोद में सात साल का नन्हा सा बालक था, जिसे पता भी नहीं था कि उसका आशियाना छिन गया है।

नामधारी का जन्म 1940 में एक छोटे से गांव नीशेरा खोजियों में हुआ, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में है।

अगस्त 1947 में देश के बंटवारे के दौरान लाखों शरणार्थियों की तरह इनका परिवार भी बेघर हो गया। तब एकीकृत बिहार का गुमनाम सा डालटनगंज यानी मेदिनीनगर उनका आखिरी पड़ाव बना।

घर से इंजीनियर बनने निकले थे नामधारी

इतना ही नहीं, 1950 के आखिरी दौर में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जब देश के युवाओं को इंजीनियर बनने का आहान कर रहे थे, तब नामधारी भी उन युवाओं की भीड़ में शामिल थे।

1947 के बंटवारे में ही पाकिस्तान के शेखुपुरा शहर से बेघर हुए नरूला परिवार की एक लड़की उनकी हमसफ़र बनी, जिसका छोटा भाई आगे जाकर ‘निर्मल बाबा’ के नाम से मशहूर हुआ।

1960 के दशक में देश में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के बीच नामधारी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी।

गोरक्षा आन्दोलन के दौरान वे जनसंघ के क़रीब आ गये और दो बार डालटनगंज से पार्टी के प्रत्याशी बने लेकिन चुनाव जीत नहीं सके।

जेपी आंदोलन में गये जेल

नामधारी का सितारा जेपी आंदोलन के दौरान चमका। 1970 के दशक में जेपी आन्दोलन की ऐसी आंधी चली कि प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने इमरजेंसी का ऐलान करा दिया।

नामधारी ने लगभग दो साल जेल की सलाखों के पीछे गुज़ारे। फिर 1980 में भाजपा का जन्म हुआ और नामधारी पहली बार डालटनगंज से विधायक चुने गये।

प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या से भड़के 1984 के सिख विरोधी दंगों में एक हिन्दू-बाहुल्य सीट का सिख प्रतिनिधि होना उनके लिए काफी चैलेंजिंग रहा।

1990 का दशक मण्डल बनाम कमण्डल का था। नामधारी ने मुस्लिम-यादव यानी एमवाई समीकरण की राजनीति भी देखी। नामधारी तीसरी बार डालटनगंज से जीते और बिहार सरकार में मंन्त्री वन गये।

बीजेपी में अलग राज्य की मांग उठाने वाले पहले नेता

नामधारी के जीवन का हर दशक उन्हें एक नयी दिशा की ओर ले गया। 2000 में झारखण्ड का निर्माण हुआ जिसको बनाने की मांग पहली बार उन्होंने ही आगरा में 1988 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रखी थी।

झारखंड अलग राज्य गठन के बाद सत्ता के केंद्र में रहे और स्पीकर बनें। इतना ही नहीं, 2004 की शुरुआत में एक समय ऐसा आया, जब बीजेपी सरकार के कई विधायक बागी हो गये और वे नामधारी के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन की मांग करने लगे।

फिर हालात ऐसे बनें, नामधारी मुख्यमंत्री तो नहीं बनें, लेकिन बाबूलाल की सत्ता चली गई और अर्जुन मुंडा नये मुख्यमंत्री बनें। उनकी सरकार में भी नामधारी ही स्पीकर रहे।

2005 में जब अर्जुन मुंडा दुबारा मुख्यमंत्री बनें, तब भी नामधारी स्पीकर बनें। फिर जोड़-तोड़ की राजनीति हुई और अर्जुन मुंडा की सरकार गिर गई। तब के यूपीए एलायंस की सरकार बनी और निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बनें।

2009 में निर्दलीय जीते लोकसभा का चुनाव

इसके बाद 2009 का लोकसभा चुनाव नामधारी लड़ना चाहते थे। पर उन्हें टिकट नहीं मिला। तब उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीतकर दिल्ली पहुंच गये।

नामधारी झारखंड की चुनावी राजनीति की धुरी हुआ करते थे। उनके ओजपूर्ण तथ्यात्मक भाषण उन्हें हमेशा दूसरों से अलग करते थे। किसी भी सभा में वह अपने भाषणों से लोगों को मोह लेते थे।

2014 का विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र दिलीप सिंह नामधारी ने अपनी किस्मत आजमाई। वह डालटेनगंज विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े थे। पर वह हार गये।

बेटे को मिला हार के बाद ही नामधारी धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए। फिर 2019 के विधानसभा चुनाव में वह पूरी तरह गायब हो गये।

अध्ययन और लेखन में व्यस्त

अब वह अध्ययन और लेखन में व्यस्त हैं। दो साल पहले उनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई। उन्होंने अपनी किताब का विमोचन भी खुद ही किया जिसका नाम दिया “एक सिख नेता की दास्तान”।

इस किताब में निर्मल बाबा की भविष्यवाणी और तीन दिसंबर 2011 को हुए नक्सली हमला का जिक्र किया गया है।

अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा कि साले निर्मल बाबा ने उन्हे पहले ही चेतावनी दी थी कि जीजाजी पर हंमला होने वाला है।

उन्हे बुलेटप्रूफ गाड़ी में चलना चाहिए। लेकिन नामधारी जी ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया और उसके ठीक एक महीने बाद तीन दिसंबर 2011 को वह लातेहार में सेंट जेवियर कॉलेज शाखा का उद्घाटन कर वापस लौट रहे थे, तब बेतला नैश्नल पार्क से पहले उन पर जानलेवा हमला हुआ।

पर वह इस लैंडलाइन हमले में बाल-बाल बच गये। इसके तुरंत बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का फोन आया। उन्होंने उनकी खैरियत पूछी।

इंदर सिंह नामधारी लिखते हैं कि घटना के बाद वे सिहर उठे थे और मानसिक तनाव के दौर से गुजर रहे थे। इसके बाद से ही उन्होंने निकलना कम कर दिया।

नामधारी 2011 की इस घटना पर लिखते हैं कि विज्ञान के विद्यार्थी होने के बावजूद अलौकिक शक्तियों पर सोचने पर मजबूर हो गए थे।

इसके बाद से ही उनका ज्यादा समय धर्म और अध्यात्म में गुजरने लगा है। आज राजनीति से दूर वह अपनी कविताओं के शब्दों से खेलने में ज्यादा व्यस्त हैं।

एक जमाना था जब सदन में नामधारी जी की चुटीली शायरी के बिना पक्ष और विपक्ष के दोनों के ही विधायक खाली महसूस करते थे। नामधारी जी जब तक सदन में रहे, हमेशा सदन की जान रहे।

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