Monday, July 7, 2025

झारखंड की जाति एवं जनजातियां: कुड़मी [Castes and Tribes of Jharkhand: Kudmi]

रांची। आइडीटीवी इंद्रधनुष के स्पेशल सेगमेंट में हम आपका परिचय राज्य की खास जाति और जनजातियों से करायेंगे।

इसके तहत इस लेख कुड़मी जाति के बारे में आपको बता रहे हैं। कुड़मी एक प्राचीन खेतीहर जाति है, जो मूल रूप से बिहार में पाई जाती है।

इसके साथ ही, छोटानागपुर और उड़ीसा में भी कुड़मी नाम की एक आदिवासी जनजाति रहती है। बिहार में यह जाति कुर्मी कहलाती है, जबकि छोटानागपुर में ये लोग कुड़मी के नाम से जाने जाते हैं।

समय के साथ, छोटानागपुर के कुड़मी बिहार के कुर्मी जाति से जुड़ गए, और दोनों ने महतो उपनाम अपनाया, जिसका अर्थ ग्राम प्रधान होता है। इसके बाद, दोनों जातियों के बीच अंतर करना कठिन हो गया।

अंग्रेजों ने दे दी अलग पहचान

ब्रिटिश शासन के दौरान, 1865 में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत, छोटानागपुर के कुड़मी समुदाय को एक अधिसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया, क्योंकि इनके उत्तराधिकार के नियम प्रथागत थे।

1913 में इन्हें आदिम जनजाति के रूप में भी पहचाना गया। छोटानागपुर के कुड़मी समाज का खानपान जंगल से मिलने वाले प्राकृतिक आहार पर आधारित होता है, जिसमें केंद, बड़, जोयङ, महुआ, घोंगा, खरहा, भेड़ आदि शामिल हैं।

1929 बिहार के कुर्मियों के साथ हुए एक

धनबाद के गजेटियर के अनुसार, साल 1929 में मुज़फ़्फ़रपुर में आयोजित एक सम्मेलन में, छोटानागपुर की टुकड़ी को एक प्रस्ताव के माध्यम से कुर्मी तह में शामिल कराया गया था।

मानभूम के तीन प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में छोटानागपुर कुरमियों का प्रतिनिधित्व किया। यह निर्णय लिया गया कि छोटानागपुर के कुडमी और बिहार के कुर्मियों के बीच कोई अंतर नहीं है।

बावजूद इसके अब भी दोनों में विवाह नही होता है। बिहार और उत्तरप्रदेश के कुर्मी स्वयं को क्षत्रिय मानते है और छोटानागपुर के कुड़मी को अछूत मानते हैं।

1931 में हटाये गये जनजातियों की सूची से

1931 की जनगणना में जनजातियों की सूची से कुड़मियों को हटा दिया गया। परंतु कुड़मी खुद को एसटी में शामिल किये जाने की मांग करते रहे।

झारखंड राज्य अलग होने के बाद ये मांग तेज होती चली गई। 2001 में कुड़मी ने झारखंड में एसटी का दर्जा देने की मांग की।

2004 में झारखंड सरकार ने सिफारिश की कि कुड़मी को अन्य पिछड़ा वर्ग के बजाय अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए। लेकिन ये सिफारिश भी विफल रही।

छोटानागपुर पठार में 1.35 करोड़ है कुड़मियों की आबादी

छोटानागपुर पठार, जिसमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा के क्षेत्र आते हैं, इसमें कुड़मी जाति की आबादी 1 करोड़ 35 लाख से अधिक है।

झारखंड में कुड़मी समुदाय की संख्या तकरीबन पूरी आबादी का 22 प्रतिशत यानी लगभग 65 लाख है। पश्चिम बंगाल में 40 लाख और ओडिशा में 30 लाख कुड़मी जाति के लोग रहते हैं।

झारखंड, बंगाल व ओडिशा के 14 लोकसभा क्षेत्र में बड़ी आबादी

कुड़मी जाति की आबादी झारखंड की आठ लोकसभा सीटों पर प्रभावी है। वहीं पश्चिम बंगाल और ओडिशा की चार लोकसभा सीटों पर भी कुड़मी समुदाय का प्रभाव है।

अगर विधानसभा वार बात करें तो कुड़मी समुदाय का झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से 36 पर मजबूत उपस्थिति है। इसमें मनोहरपुर (एसटी), चक्रधरपुर (एसटी), खरसावां (एसटी), सरायकेला (एसटी), जगन्नाथपुर एसटी), पोटका (एसटी), घाटशिला (एसटी), जुगसलाई (एसटी), बहरागोड़ा, ईचागढ़, तमाड़ (एसटी), खिजरी (एसटी), कांके (एससी), सिल्ली, हटिया, रामगढ़, बगोदर, मांडू, टुंडी, गोमिया, बड़कागांव, हजारीबाग, डुमरी, बेरमो, बाघमारा, सिमरिया, चंदनक्यारी (एससी), बोकारो, सिंदरी, देवघर, पांकी, महगामा, गोड्डा, पौड़ेयाहाट, झरिया, धनबाद शामिल हैं।

कुड़मी समुदाय का राजनीतिक उभार की …

कुड़मी समुदाय का सामाजिक प्रभाव तो इस क्षेत्र में दिखा ही है। इसका राजनीतिक प्रभाव भी इससे कम नहीं है। इतिहास में इस समाज में कई नेता हुए और अब भी कई नेता हक और अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं।

कुड़मी महतो समुदाय ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न विद्रोहों में भूमिका निभाई। 1785-1800 में कुड़मी समुदाय अंग्रेजों के खिलाफ चुआड़ विद्रोह में शामिल हुआ। तब, रघुनाथ महतो उनके प्रमुख नेता थे। बुली महतो 1831 में कोल विद्रोह के नायकों में से एक थे। चानकु महतो ने गोड्डा जिले में किसान विद्रोहों का नेतृत्व किया।

झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में भी कुड़मी समाज का दबदबा रहा। कुड़मी समाज ने झारखंड अलग राज्य आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। समान्यत यह माना जाता है कि कुड़मी समुदाय का आधुनिक काल की राजनीत में उभार बिनोद बिहारी के साथ होता है।

बिनोद बिहारी महतो कुड़मी समाज के बड़े नेताओं में से एक हैं। झारखंड में कुड़मी समाज की जो स्थिति आज है, वह 60 के दशक में नहीं थी। पूरा समाज सांघा प्रथा (पत्नी परित्याग), बाल-विवाह, बहु-विवाह, अशिक्षा, दहेज प्रथा, शराबखोरी आदि से जूझ रहा था।

बिहारी महतो ने समाज को इन कुरीतियों के चुंगल से छुड़ाने के लिए समाज के कुछ पढ़े-लिखे लोगों से मिल कर एक संगठन बनाया। नाम रखा गया शिवाजी समाज। इसके पीछे तर्क था कि कुड़मी शिवाजी महाराज के वंशज है। गांवों में एक्शन कमेटी बनायी गयी।

अगर कोई पत्नी त्याग करता था, दहेज लेता था या फिर 18 साल से पहले बेटी या बेटे की शादी कराता, तो उसे कमेटी खुद सजा देती थी। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि बिनोद बिहारी महतो झारखंड मुक्ती मोर्चा के संस्थापकों में से एक थे।

बिनोद बिहारी महतो के बाद कुड़मी समुदाय ने कई नेताओं का उभार देखा। इनमें मुख्य रूप से आंदोलनकारी स्व. निर्मल महतो, स्व. सुनील महतो, रघुनाथ महतो, शैलेंद्र महतो, चिंतामणी महतो, स्व. टाइगर जगरनाथ महतो प्रमुख हैं।

झारखंड की मौजूदा राजनीति में भी कई बड़े नेता हैं जो कुड़मी समाज की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनमे मुख्य रूप से योगेंद्र महतो, मथुरा महतो, बिद्युत बरन महतो, ढुल्लू महतो, सुदेश महतो, चंद्रप्रकाश चौधरी, युवा नेता जयराम महतो, देवेंद्रनाथ महतो, संजय मेहता आदि प्रमुख हैं।

पंडित नेहरू के समय में क्या हुआ?

कुड़मी समाज के एसटी कैटेगरी में शामिल होने का एक किस्सा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी जुड़ा है। किस्सा शुरू होता है स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना से , जो साल 1951 में हुई थी।

उस जनगणना में कुड़मी को अनुसूचित जनजाति के दायरे से बाहर रखा गया था। वहीं, झारखंड की 13 में से 12 जातियों को इस वर्ग में शामिल किया गया था।

कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू से जब इस बात की शिकायत की गई, तो उन्होंने कहा कि ये महज एक गलती है और इसे आगे सुधार लिया जाएगा। हालांकि, ऐसा नहीं हो सका। तब से ही कुड़मी समाज के लोग इस भूल को सुधारने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं।

अभी ओबीसी में शामिल, बिहार के कुर्मी-कुनबी से अलग

आम तौर पर कई बार लोग कुड़मी और कुर्मी को एक मान लेते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। झारखंड का कुड़मी समाज खुद को अनुसूचित जनजाति वर्ग का मानता है।

उसकी परंपरा-बोली सब कुछ बिहार के कुर्मी एवं कोयरी समाज से अलग है। खुद को द्रविड़ियन बताने वाले कुड़मी कहते हैं कि अंग्रेजों के समय में कुड़मी और कुर्मी की अंग्रेजी की स्पेलिंग एक थी, यही कारण है कि कुड़मी और कुर्मी को एक जाती माना जाने लगा।

बाद में यह गलफहमी बढ़ती चली गई और कुड़मी समुदाय को ओबीसी की लिस्ट में शामिल कर दिया गया।

दबी रह गई झारखंड के कुड़मियों की आवाज

बिहार का हिस्सा होने की वजह से झारखंड के मूल निवासियों की आवाज दबी ही रही। हालाँकि, अंग्रेजों के बिहार में कुर्मी-कोयरी गंगा के मैदानी इलाकों में रहने वाली खेतिहर जातियाँ थी, तो झारखंड के कुड़मी जिनाका उपनाम महतो, महन्ता, मोहंत है, वे खुद को अनुसूचित जनजाति बताते हैं।

इतना ही नहीं, कुड़मी समाज के लोग टोटेमवाद का पालन करते हैं। ऐसे में वो खुद को द्रविड़ कहते हैं।

उनका कहना है कि हर्बर्ट होप रिस्ले द्वारा लिखित पुस्तक ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बंगाल’ (1891) में भी इस बात का जिक्र है। वहीं, साल 1913 में अंग्रेज सरकार ने कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति माना था।

हालाँकि, अंग्रेजों ने इसमें एक वर्गीकरण भी कर दिया था कि कुड़मी समाज पहले से इस लिस्ट में शामिल नहीं था। साल 1931 तक उनकी पहचान अनुसूचित जनजाति से हटा दी गई थी। इसके बाद 1951 की जनगणना में भी ये जारी रही।

आदिवासियों के साथ समानता

जनजातीय समुदाय की सबसे बड़ी पहचान है उनका प्रकृति पूजक होना। इसे टोटेमिक व्यवस्था कहते हैं। दुनिया की हरेक जनजाति समुदाय की पहचान उनके टोटम से होती है।

कुड़मी जनजाति में काड़ुआर, हिंदइआर, बंसरिआर, काछुआर, केटिआर, डुमरिआर, केसरिआर जैसी 81 मूल टोटेम है, इसके अलावा सब-टोटम को मिलाकर कुल 120 टोटम होते हैं। हरेक टोटम की अलग पहचान और प्रतीक चिन्ह होता है।

यही नहीं, इनकी सामाजिक व्यवस्था भी अन्य जनजातीय लोगों की तरह ही होती है, जिसमें गांव के मुखिया को महतो और परगना के मुखिया को परगनैत जैसी पहचान दी जाती है।

यही लोग आपसी विवादों का निपटारा भी करते हैं। इसी तरह संथाल, मुंडा, उरांव की तरह उनकी खुद की स्वायत्त भाषा है, जिसे कुड़माली कहा जाता है।

इस समुदाय की शादी विवाह की व्यवस्था भी बिहार के कुर्मियों-कुनबियों जैसी नहीं, बल्कि जनजातियों जैसी है।

क्या है कुड़मियों की मांग

झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कुड़मी समाज के लोग खुद को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। इसे लेकर पिछले डेढ़ साल से उन्होंने आंदोलन भी तेज कर दिया है। इसके लिए कुड़मी समुदाय के लोग लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं।

पिछले साल 23 सितंबर को इन्होंने पश्चिम बंगाल ओडिशा और झारखंड के कई इलाकों में तीन दिन तक रेलें रोक दी थी। इसके अलावा कुड़मी समुदाय की मांग है कि उनकी भाषा कुरमाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। उनका कहना है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय में जो गलतियां की गईं, उन्हें सुधारा जाए।

कुड़मियों की मांग पर राजनीतिक दलों का रूख क्या है?

झारखंड में करीब 20 फीसदी की आबादी वाले कुड़मियों को नजरअंदाज करने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है। हालांकि, भाजपा की सरकारों में इस बारे में गंभीर प्रयास किए।

झारखंड में रघुवर दास की सरकार में भी कुड़मियों को उनका हक दिलाने के लिए कुछ कदम उठाए गए थे। इसका विपक्ष के विधायकों ने भी साथ दिया था।

इसके अलावा, इस मामले में देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू के रांची दौरे के समय उन्हें ज्ञापन भी सौंपा गया था। सत्ता पक्ष हों या विपक्ष, सभी एक सुर में कुड़मियों के साथ खड़े होने की बात करते हैं।

हालाँकि, पिछले दिनों जब भोगता और कुछ अन्य जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए सदन में संविधान संशोधन बिल पेश किया गया, तो कुड़मी समुदाय में भी उम्मीद की किरण जगी थी। हालांकि, उनकी मांगों को सही जगह रखा ही नहीं गया, और अब कुड़मी समुदाय असमंजस की स्थिति में फंसा हुआ है।

इसे भी पढ़ें

क्या नाराज कुड़मी समाज बिगाड़ेगा हेमंत सोरेन का खेल ?

Hot this week

Bariatu Housing Colony: बरियातू हाउसिंग कॉलोनी में मनचलों और नशेड़ियों से सब परेशान, एक धराया [Everyone is troubled by hooligans and drunkards in Bariatu...

Bariatu Housing Colony: रांची। बरियातू हाउसिंग कॉलोनी एवं यूनिवर्सिटी कॉलोनी...

झारखंड विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण की अधिसूचना जारी [Notification issued for the second phase of Jharkhand assembly elections]

आज से नामांकन, 38 सीटों पर होगा मतदान रांची। झारखंड...
spot_img

Related Articles

Popular Categories

spot_imgspot_img