इतने आरक्षण के बाद भी पहचान को तरस रही महिलाएं
झारखंड की पंचायतों में 57 प्रतिशत पदों पर महिलाएं चुनी गई हैं। बावजूद इसके, महिलाएं अब भी अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं।
झारखंड में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए पंचायतों में उनके लिए 56 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई हैं।
हालांकि निर्धारित सीटों से अधिक महिलाएं पंचायतों में विभिन्न पदों पर चुन कर आईं। फिर भी सत्ता उनके हाथ नहीं रहती।
महिला प्रतिनिधियों के पति, पुत्र या रिश्तेदार ही पंचायत में कराते है विकास कार्य
ग्रामसभा और पंचायतों के अधिकांश कामकाज उनके पति, देवर, पुत्र या अन्य रिश्तेदार ही करते नजर आते हैं।
यहां तक कि निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के फोन भी उनके पति, पुत्र या रिश्तेदार ही रखते हैं।
झारखंड की ग्राम पंचायतों के लिए चुनी गईं महिला जनप्रतिनिधि कितनी सक्रिय हैं, यह परखने के लिए एक मीडिया हाउस ने धनबाद जिले की पंचानबे महिला मुखिया के मोबाइल नंबरों पर कॉल किया।
नतीजा चौंकानेवाला था। इन पंचानबे महिला मुखियाओं में से चौरासी का फोन उनके पति, देवर, पुत्र या किसी अन्य रिश्तेदार ने उठाया।
अधिकतर ने कहा…मैं मुखिया जी का पति या पुत्र बोल रहा हूं। किसी ने कहा मैं मुखिया जी का देवर बोल रहा हूं, बोलिये क्या काम है।
झारखंड के हर जिले में कमोवेश यही स्थिति है। यही नहीं, जिन महिला मुखियाओं ने फोन उठाया, उनमें ज्यादातर को अपने पंचायत में चल रहे विकास कार्यों की जानकारी तक नहीं थी।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि इस बारे में उनके पति, पुत्र या देवर ही बता सकते हैं,क्योंकि क्षेत्र का काम वे ही देखते हैं।
दरअसल, झारखंड के ज्यादातर ग्राम पंचायतों के कार्यों और विकास योजनाओं में महिला जनप्रतिनिधियों की भागीदारी की कड़वी हकीकत यही है।
राज्य में त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए कुल 50 फीसदी आरक्षण है।
पिछले साल अप्रैल-मई में राज्य में हुए चुनाव में पंचायती राज संस्थाओं के कुछ तिरसठ हजार सात सौ एक पदों में से करीब चालीस हजार पदों पर महिलाएं चुनी गई हैं।
पंचायत स्तर की राजनीति में महिलाओं की संख्यात्मक भागीदारी के हिसाब से यह आंकड़ा बेहद उम्मीद जगाने वाला है।
पर जमीनी हकीकत इसके विपरीत है। महिला जनप्रतिनिधियों के नाम पर उनके पतियों या उनके घर के किसी प्रभावशाली पुरुष ही उनका कामकाज देखते हैं।
झारखंड में महिला मुखिया के पति को आम तौर पर एमपी यानी “मुखिया पति” या “मुखिया प्रतिनिधि” के रूप में पुकारा और पहचाना जाता है।
ज्यादातर पंचायतों की बैठकों में महिला मुखिया की जगह उनके पति ही भाग लेते हैं। पंचायतों के फैसलों की कमान भी उन्हीं के हाथ में होती है।
यहां तक कि ब्लॉक, अनुमंडल और जिला स्तर पर प्रशासनिक पदाधिकारियों से मुलाकात करते हुए ये लोग अपना परिचय मुखिया के पति या प्रतिनिधि के रूप में देते हैं।
झारखंड में पंचायत और प्रखंड स्तर पर शांति-व्यवस्था के लिए शांति समितियां भी होती हैं। वहां भी महिला जनप्रतिनिधियों के नाम पर उनके पति या रिश्तेदार सक्रिय भूमिका में रहते हैं।
हालांकि राज्य सरकार ने सभी जिलों के उपायुक्तों को पत्र लिखकर महिला जनप्रतिनिधियों की जगह उनके पति, पुत्र या रिश्तेदार को बैठक या सभा में शामिल होने पर रोक लगाने का निर्देश दे रखा है।
जानकार बताते हैं कि साल दो हजार दो में पंचायत चुनाव जीतकर करीब छप्पन प्रतिशत पदों पर महिलाएं स्थानीय शासन व्यवस्था का हिस्सा बनी थीं।
झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों की महिला जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा सजग हैं।
पंचायतों के कामकाज में भी उनकी सक्रिय भागीदारी लगातार बढ़ी है। इसकी वजह यह है कि आदिवासी समाज में महिला-पुरुष का भेदभाव अपेक्षाकृत कम है।
सामान्य ग्रामीण समाज की तुलना में आदिवासी समाज की महिलाएं सामाजिक तौर पर ज्यादा अग्रणी और सक्रिय रही हैं।
चुनाव जीतने के बावजूद पंचायतों में महिला जनप्रतिनिधियों के लिए अपनी अलग पहचान और अलग रास्ता बना पाना बहुत आसान नहीं रहा है।
महिला जनप्रतिनिधियों के साथ होता है दुर्व्यवहार
पुरुष सत्तात्मक ग्रामीण समाज अब भी इसके लिए तैयार नहीं दिखता। झारखंड में आये दिन महिला जन प्रतिनिधियों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें मिलती रहती हैं।
पिछले दिनों दुमका जिले की दुधानी पंचायत में आदिवासी महिला मुखिया जूली मरांडी के साथ उसी पंचायत के उप मुखिया राकेश यादव और उनके समर्थकों ने मारपीट कर बाल पकड़कर घसीटते हुए पंचायत भवन से बाहर कर दिया था।
हालांकि पुलिस ने कुछ आरोपियों को गिरफ्तार किया था, बाकी अब भी बाहर हैं। इसी तरह से बीते जुलाई महीने में पलामू जिले के लेस्लीगंज ब्लॉक के पुरनाडीह पंचायत की मुखिया गुड्डी देवी के साथ प्रखंड के बीडीओ की ओर से बदसलूकी की शिकायत सामने आई।
गुड्डी देवी का आरोप है कि भरी सभा में बीडीओ ने उनके हाथ से जबरन माइक छीन ली और दुर्व्यवहार किया।
जानकारों का कहना है कि दरअसल समस्या यह है कि निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पा रही हैं।
आज भी ग्राम सभा में महिलाओं की भागीदारी सहज नहीं हो पाई है। पर ऐसा नहीं है कि महिलाएं बेहतर कामकाज कर अपना छाप नहीं छोड़ रहीं।
महिला जनप्रतिनिधियों ने बनाई अपनी खुद का पहचान
विषम परिस्थितियों में भी कई पंचायतों की महिला जनप्रतिनिधियों ने अपनी सक्रियता और कामकाज से अलग पहचान बनाई है।
कई महिला जन प्रतिनिधि तो राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। बीते मार्च महीने में रांची के पिठौरिया की मुखिया मुन्नी देवी को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों स्वच्छ सुजल शक्ति सम्मान प्राप्त हुआ।
उन्होंने अपनी ग्राम पंचायत में जल संरक्षण, तरल कचरा प्रबंधन और ओडीएफ प्लस के लिए शानदार काम किया।
जिस पंचायत में पानी का गंभीर संकट था, वहां अब हर घर में नल पहुंच चुका है। राजधानी रांची के समीप कमड़े पंचायत की मुखिया नीलम तिर्की कभी दिहाड़ी मजदूरी करती थीं।
वर्ष दो हजार दस में पहली बार पंचायत में वार्ड सदस्य चुनी गईं। उन्होंने बेहतर काम किया इसके बाद लगातार दो बार मुखिया पद के लिए चुनी गईं।
इसी तरह गिरिडीह के बिरनी प्रखंड अंतर्गत कपिलो पंचायत की मुखिया रहीं इंदु देवी ने पूरे पंचायत की तस्वीर बदल डाली।
उन्होंने पंचायत के स्कूलों की व्यवस्था में सुधार के साथ-साथ जल प्रबंधन, कचरा निकासी, शौचालय निर्माण, सड़क निर्माण के क्षेत्र में इतना शानदार काम किया कि उन्हें लगातार तीन वर्ष दो हजार अठ्ठारह, दो हजार उन्नीस और दो हजार बीस में नानाजी देशमुख सर्वोत्तम पंचायत सतत विकास राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
इस पंचायत को दीनदयाल उपाध्याय पंचायती राज पुरस्कार के लिए भी चुना गया था।
पंचायतों के अलावा राज्य की राजनीति में भी महिलाओं की भागीदारी में हो रही है वृद्धि
पंचायतों से इतर राज्य की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में लगातार वृद्धि हुई है।
वर्ष दो हजार में जब झारखंड बना था, तब राज्य की विधानसभा में महिला विधायकों का अनुपात सिर्फ पांच फीसदी थी।
वर्ष दो हजार दस में यह दस फीसदी हुआ और मौजूदा विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या प्रतिशत के लिहाज से चौदह दशमलव आठ एक फीसदी है।
राज्य की बिरासी सदस्यीय विधानसभा में कुल बारह महिला विधायक है। यह राज्य में महिला विधायकों की अब तक की सर्वाधिक संख्या है।
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