रांची। हेमंत सोरेन ने तीसरी बार झारखंड के सीएम पद की शपथ ले ली। 2019 में भाजपा को हरा कर वे दूसरी बार सीएम बने थे।
जमीन घोटाले में जेल जाने के बाद इंडी ब्लॉक ने चंपाई सोरेन को सीएम बनाया था। उनकी मियाद सिर्फ 150 दिनों की रही।
इस दौरान चंपाई सोरेन के काम में कोई कोई खोट भी नहीं दिखी। पांच महीने बाद ही झारखंड विधानसभा का चुनाव होना है।
पर हेमंत सोरेन का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने चंपाई की जगह खुद सीएम की कुर्सी ले ली। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने जिस तरह राजद के नाम पर परिवारवाद को बढ़ावा दिया है, ठीक उसी पैटर्न पर झारखंड में शिबू सोरेन का परिवार भी चल रहा है।
शिबू सोरेन के बड़े बेटे दिवंगत दुर्गा सोरेन विधायक होते थे तो उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सीता सोरेन विधायक बनती रहीं।
हेमंत सोरेन विधायक और फिर सीएम बने। एक बार फिर वे सीएम बन गए हैं। हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन भी अब विधानसभा की सदस्य बन चुकी हैं। शिबू सोरेन के सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन भी विधायक हैं।
राजनीति की प्रयोगशाला बनता रहा है झारखंड
झारखंड तो अपने स्थापना काल से ही राजनीति की प्रयोगशाला बनता रहा है। यहां निर्दलीय भी मुख्यमंत्री बन जाता है।
मधु कोड़ा निर्दलीय जीते थे, लेकिन कांग्रेस और जेएमएम के सहयोग से मुख्यमंत्री बन गए थे। फिर उनके राज में क्या हुआ, ये सब जानते हैं।
मधु कोड़ा खुद भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए। उनके मंत्रिमंडल के आधा दर्जन से अधिक सदस्य भ्रष्टाचार के अलग-अलग मामलों में जेल गए। उनमें कई के मुकदमे अभी चल रहे हैं तो कुछ की मौत भी हो चुकी है।
परिवारवाद की परंपरा भी बढ़ी झारखंड में
राजनीति में परिवारवाद की चर्चा झारखंड में एक बार फिर इसलिए है कि हेमंत सोरेन ने ईडी की गिरफ्त में आने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
तब पार्टी और सहयोगी दलों ने चंपाई सोरेन को उनकी जगह सीएम बनाया। बतौर सीएम उन पर कोई ऐसा आरोप नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया जाता।
ऐसा सिर्फ और सिर्फ इसलिए हुआ कि शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हैं। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष उनके बेटे हेमंत सोरेन हैं।
जमीन घोटाले में हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद हेमंत सोरेन की सक्रियता बढ़ी और पांच दिनों के अंदर ही उन्होंने चंपाई सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाने का फैसला कर लिया।
चंपाई सोरेन के इस्तीफे के बाद हेमंत सोरेन ने सीएम पद की फिर से शपथ ले ली। पर, सबसे बड़ा सवाल यही है इतनी हड़बड़ाहट क्यों और ऐसी पारिवारिक पार्टियों के साथ लोग कब तक जुड़े रहेंगे।
चंपाई भी जानते थे अपना अंजाम
ईडी ने जमीन घोटाले के आरोप में 31 जनवरी 2024 को हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया था। उसके बाद चंपाई सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
चंपाई सोरेन भी यह जानते थे कि वे मौके के मुख्यमंत्री हैं। उनकी मियाद तभी तक है, जब तक हेमंत सोरेन जेल से बाहर नहीं आ जाते।
हुआ भी ठीक ऐसा ही। हेमंत सोरेन को 28 जून को झारखंड हाईकोर्ट ने जमानत दे दी और पांच दिन बाद ही 3 जुलाई को हेमंत सोरेन ने इंडिया ब्लाक के विधायकों की आपात बैठक बुला कर सीएम के लिए सहयोगी दलों के विधायकों से अपने नाम पर सहमति के हस्ताक्षर करा लिए।
ऐसी स्थिति में चंपाई सोरेन के सामने कोई रास्ता नहीं था। हेमंत सोरेन के साथ वे राजभवन गए और राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया।
इसके साथ ही हेमंत सोरेन ने सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया। लेकिन जिन परिस्थितियों में चंपाई सोरेन को सीएम बनाने का निर्णय झारखंड मुक्ति मोर्चा ने लिया था और उसके बाद बतौर सीएम उन्होंने जैसे काम किए, उसकी गूंज सुनाई देने लगी थी।
चंपाई का कार्यकाल लोगों को रहेगा याद
चंपाई सोरेन जनता को राहत पहुंचाने वाले लगातार एक से बढ़ कर एक योजनाओं का ऐलान करने लगे थे।
इससे हेमंत सोरेन के सामने सबसे बड़ा संकट यह खड़ा हुआ कि कहीं उनकी लोकप्रियता चंपाई से कम न हो जाए।
नतीजतन बाहर आते ही हेमंत ने सबसे पहले यही काम किया कि इंडी ब्लॉक के विधायकों की बैठक बुलाकर अपने नाम पर आम सहमति बना ली।
इस्तीफा देने चंपाई पूर्व सीएम हेमंत के साथ राजभवन पहुंच गए। राज्यपाल ने उनका इस्तीफा मंजूर कर लिया।
लोकसभा की पांच सीटें दिलाने का क्रेडिट भी चंपाई को
कामकाज की दृष्टि से देखें तो हेमंत सोरेन ने जितना जनता के लिए चार साल में किया था, उससे चंपाई सोरेन आगे निकलते दिखे।
जनता का उनके कामों को देख कर उन पर भरोसा बढ़ने लगा था। शायद यही वजह रही कि हेमंत सोरेन के जेल में रहते चंपाई सोरेन के नेतृत्व में लड़े गए लोकसभा के चुनाव में इंडी ब्लाक को इस बार पांच सीटें मिलीं।
अब सवाल उठता है कि हेमंत सोरेन अगर इतने ही काबिल थे तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका करिश्मा क्यों नहीं नजर आया।
चंपाई सोरेन ने अपने इलाके में गीता कोड़ा को हरा कर और जेएमएम प्रत्याशी जोबा मांझी की जीत सुनिश्चित कर यह साबित कर दिया कि सिंहभूम के इलाके में उनकी पकड़ और प्रभाव कितना है।
कहीं न कहीं कसक तो रहेगी हीः
बहरहाल, चंपाई अब मुख्यमंत्री नहीं रहे। उनके मन में तो इसकी कसक होगी ही, उनके समर्थकों के मन में भी इस बात का मलाल जरूर होगा कि बेहतर काम करने वाले सीएम को हटा कर जमानत पर रिहा हुए हेमंत सोरेन ने अच्छा नहीं किया।
हालांकि हेमंत सोरेन ही सरकार को परोक्ष रूप से चला रहे थे। उनके परिवार को सरकार से कोई परेशानी नहीं थी। इसके बावजूद चार-पांच महीने का इंतजार हेमंत सोरेन ने बर्दाश्त नहीं किया।
यह उन्हें विधानसभा चुनाव में महंगा पड़ जाए तो आश्चर्य की बात नहीं। हेमंत की समझदारी तब होती, जब जेल से रिहा होने के बाद वे पार्टी या गठबंधन के लिए मजबूती से काम करते।
चंपाई सोरेन के नेतृत्व में सरकार को यथावत जारी रखते। विधानसभा चुनाव में उन्हें इसका भरपूर लाभ मिलता। फिर सीएम बनते तो किसी को एतराज भी नहीं होता।
ये भी तो डर था हेमंत को
हेमंत सोरेन भी बेहतरीन राणनीतिकार और राजनीतिज्ञ हैं। वह यह भली भांति जानते थे कि यदि चंपाई सोरेन के नेतृत्व में आगामी विधानसभा का चुनाव लड़ा गया और इंडी गठबंधन की जीत हुई, तो सारा क्रेडिट चंपाई सोरेन को चला जायेगा।
इतना ही नहीं, इसके बाद उन्हें कुर्सी से हटाना भी आसान नहीं होगा। जनता तो अभी से ही चंपाई सोरेन के कामकाज से खुश थी।
मां-बहन-बेटी स्वावलंबन योजना, 200 यूनिट बिजली फ्री, 15 लाख आयुष्मान स्वास्थ्य बीमा जैसी नई योजनाएं लाकर और अबुआ आवास योजना को आगे बढ़ाकर चंपाई सोरेन जनता के दिलो दिमाग पर छाने लगे थे।
भले ही वह सार्वजनिक मंच पर इन सबका क्रेडिट हेमंत सोरेन को देते थे, लेकिन जनता तो सामने चंपाई को ही देख रही थी।
यही सब देखकर हेमंत सोरेन को लगा कि झारखंड में भी एक जीतनराम मांझी पैदा न हो जाये, इससे पहले ही उन्होंने जड़ को ही हटा देना उचित समझा।
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