नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज 45 घंटे के ध्यान से बाहर आ गये हैं।
अंतिम चरण का चुनाव प्रचार थमते ही 30 मई की शाम से कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद सेंटर में ध्यान लगाने चले गये थे।
इसके साथ ही उनकी अध्यात्म में रुचि को लेकर चर्चाएं शुरू हो गई थीं। दरअसल, नरेंद्र मोदी और अध्यात्म का नाता काफी गहरा और पुराना है।
उनके व्यक्तित्व, राजनीतिक दृष्टिकोण, और भारतीय समाज के साथ उनके दृढ़ संबंधों में इसकी झलक मिलती है।
उनके धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण, उनके ध्यान केंद्रित जीवन और उनकी नीतियों की प्रेरणा शामिल है।
नरेंद्र मोदी और अध्यात्म का रिश्ता नया नहीं है। कई बार ऐसा हुआ है, जब घंटों ध्यान लगाने वह एकांतवास में चले गये।
कभी केदारनाथ की गुफाओं में, तो कभी कन्याकुमारी तो कभी अपने घर में ही ध्यान लगा लिया।
साल 2014 में जब वह पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तब भी लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र स्थित प्रतापगढ़ के किले में चले गये थे।
ये शिवाजी महाराज का किला है। यहां मोदी ने कुछ घंटों तक एकांतवास किया था। इसके बाद साल 2019 में चुनाव संपन्न होने के बाद पीएम मोदी केदारनाथ की गुफाओं में ध्यान लगाने चले गये थे।
यहां उन्होंने 17 घंटे ध्यान लगाया था। अब एक बार फिर वह कन्याकुमारी में 45 घंटों के ध्यान में थे।
सारा विश्व उनकी आध्यात्मिक रुचि में दिलचस्पी दिखा रहा है। वहीं, भारत में विपक्ष इसे चुनावी हथकंडे बता रहा है।
तमिलनाडू कांग्रेस ने तो उनके इस ध्यान को चुनावी हथकंडा बताते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी है।
टीएमसी नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इसकी आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
वही पीएम मोदी इन आलोचनाओं से दूर विपक्ष के आरोपों पर चुप्पी की चादर ओढ़े हैं। उन्होंने विपक्ष के आरोपों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, न ध्यान में जाने से पहले और न लौटने के बाद। इससे भी विपक्ष की बौखलाहट और बढ़ गई है।
दरअसल नरेंद्र मोदी के लिए यह सब कुछ नया नहीं है। यह उनकी अध्यात्मिक ढृढ़ता ही उन्हें इन चुनौतियों के खिलाफ मजबूत बनाती है।
इससे पहले भी कोरोना काल के दौरान जब सारा विश्व मेडिकल साइंस की ओर भाग रहा था, तब मोदी ने देश के लोगो से थाली बजाने की अपील की।
तब देश क्या विदेशों में भी लोगों ने उनकी एक अपील पर खूब थाली बजाई। फिर लोगों ने मोदी के कहने पर दिये भी जलायें।
यह एक उदाहरण मात्र है कि मोदी की आध्यात्मिक सोच पर लोगों को कितना भरोसा है, सिर्फ भारत नहीं, बल्कि विदेशों में भी।
फिर जब अयोध्या में रामलला का अभिषेक होना था, तब भी मोदी ने सात दिनों पहले से ही उपवास शुरू कर दिया।
जमीन पर चटाई बिछाकर सोते रहे। तब जब सभी शंकराचार्यों ने अभिषेक समारोह में आने से इनकार कर दिया था, तब मोदी पर लोगों को भरोसा था कि इस अभिषेक के लिए उनसे उपयुक्त दूसरा कोई व्यक्ति हो ही नहीं सकता।
मोदी ने लोगों का यह भरोसा और विश्वास अपने तप से ही पाया है। यह तप और ध्यान वह वर्षों से करते चले आ रहे हैं।
वर्ष 1967 में नरेंद्र मोदी ने ग्यारहवीं की परीक्षा पास की। तब उन्होंने जामनगर के बालाछड़ी जाने की सोची थी, सैनिक स्कूल से पढ़ाई करने के लिए, ताकि आगे चलकर फौज ज्वाइन कर सकें, देश सेवा कर सकें।
घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, पिता दामोदरदास मोदी और मां हीराबा बड़ी मुश्किल से अपने छह बच्चों को पाल- पोस रहे थे, इसलिए वे नरेंद्र मोदी की सैनिक स्कूल में पढ़ने की इच्छा पूरी कर पाने में असमर्थ थे। तब नन्हा नरेंद्र चाय की दुकान पर उनकी मदद कर रहा था और उनका बड़ा सहारा था।
19 साल के बाद मोदी जब 1969 में अहमदाबाद पहुंचे। तब अहमदाबाद सियासत की उर्वर भूमि के साथ ही साहित्य, धर्म और आध्यात्म की भूमि भी थी।
इसी शहर में वो ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर भी है, जहां की रथयात्रा उड़ीसा के पुरी जैसी ही मशहूर है।
मंदिर शहर की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र था। मोदी भी जब साल 1969 में अहमदाबाद पहुंचे, तो उनकी भी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र जगन्नाथ मंदिर बना।
जब वह पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो इसी मंदिर में प्रभु का आशीष लेने पहुंचे थे। लेकिन नरेद्र मोदी की आध्यात्मिक रुचि तो इससे पहले ही पैदा हो चुकी थी।
जब उनके जीवन में स्वामी दयानंदका आगमन हुआ। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे आध्यात्मिक गुरु थे।
सितंबर 2015 में उनका निधन हो गया था। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आरएसएस में रहने के दौरान से ही अपने आध्यात्मिक गुरु दयानंद गिरि से मिलने जाते रहे हैं।
पीएम के जीवन पर स्वामी जी का काफी गहरा प्रभाव है। पीएम मोदी के बारे में एक और रोचक किस्सा मशहूर है, जो दूसरे आध्यात्यामिक गुरु आत्मआस्थाएनंद से जुड़ा है।
कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी कई साल पहले सबकुछ छोड़कर सन्यासी बनने निकल पड़े थे। तब स्वामी आत्मआस्थानंद ने ही उन्हें रोका और समझा बुझा कर राजनीति में जाने को प्रेरित किया था।
स्वामी आत्मआस्थानंद कोलकाता स्थित बेल्लूर मठ के मुख्य संत थे। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले गुरु माने जाते हैं।
नरेंद्र मोदी के जीवन में रामकृष्ण मिशन के इस संत का काफी प्रभाव रहा है। उन्होंने ही मोदी को उनकी युवावस्था में राजनीति में आने की सलाह दी, जिसकी बदौलत देश ने उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखा।
आत्मआस्थानंद से मोदी की पहली मुलाकात 1966 में हुई थी। दरअसल 1966 में वे गुजरात के राजकोट शहर के रामकृष्णे मिशन आश्रम के प्रमुख बनाए गए थे।
विवेकानंद के जीवन और कार्य से प्रभावित नरेंद्र मोदी ने उन्हीं दिनों राजकोट स्थित रामकृष्ण मिशन आश्रम में शरण ली थी।
नरेंद्र मोदी उन दिनों युवा थे और उनका मन संन्यास की ओर झुका हुआ था। रामकृष्ण मिशन आने से पहले कई वर्षों तक वह घूमते रहे और अध्यात्म ज्ञान की तलाश करते रहे।
राजकोट आश्रम में आत्मआस्थाजनंद की सान्निध्य में कुछ समय तक रहने के बाद, मोदी ने उनसे संन्यासी बनने की इच्छा जताई।
उस समय आत्मआस्थानंद ने उनसे कहा कि संन्यास उनके लिए नहीं है। हालांकि मोदी संन्यासी बनने का मन बना चुके थे।
राजकोट आश्रम ने जब संन्यास की दीक्षा नहीं दी, तो वे बेल्लूर चले गए। आत्मआस्थासनंद ने उस समय के बेल्लूर मठ प्रमुख स्वामी माधवानंद को एक पत्र लिखा।
मोदी वह पत्र लेकर बेल्लूर गए, हालांकि वहां भी उन्हें संन्यास की दीक्षा नहीं दी गई। वहां मोदी से कहा गया कि वे लोगों के लिए काम करें, उन्हें समाज से अलग-थलग होने की आवश्यकता नहीं है।
मोदी बेलुर से लौटकर एक बार फिर आत्मआस्थानंद के पास आए। आत्मआस्थानंद ने उन्हें समाज की सेवा करने की सलाह दी, जिसके चंद दिनों बाद ही वह आरएसएस में शामिल हो गए।
संघ में काम करते हुए मोदी राजनीति में आ गए। पर राजनीति में रहते हुए भी उन्होंने अध्यात्म को नहीं छोड़ा और आज वे दुनिया के चंद प्रभावशाली लोगों में शुमार हैं।
संभवतः इसके पीछे भी धर्म और अध्यात्म ही है, जो उन्हें शक्ति देती है। नरेंद्र मोदी का अध्यात्मिक दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व के मौलिक हिस्से के रूप में उभरता है।
एक बार फिर नरेंद्र मोदी 45 घंटे के ध्यान से बाहर आ गये हैं इस प्रण के साथ कि अबकी बार 400 पार।
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