संजय शेफर्ड
यात्राओं के अनुभव भी ना बहुत ही ख़ास होते हैं। कुछ महीने पहले की बात है। मैं उड़ीसा घूम रहा था और रात हो गई।
होटल मिलना संभव नहीं था इसलिए गांव के ही एक छोटे से घर में रुकना पड़ गया। जिस घर में रुका था उसमें पति, पत्नी और एक चार साल का बच्चा। कुल चार ही लोग थे।
हमने रात का खाना खाया और सोने की बारी आई तो पता चला कि एक ही बेड है। जिसके घर में रुका था उन्होंने कहा आप बिस्तर पर सो जाओ। हम लोग नीचे बिछाकर सो जायेंगे।
सर्द बहुत ज्यादा थी। मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था पर कोई विकल्प भी नहीं था। मैंने कहा नहीं मेरे पास स्लीपिंग बैग है।
मैं तो हमेशा इसी में सोता हूं। पर वह तैयार नहीं हो रहे थे। बहुत ही मुश्किल से तैयार हुए। मैं स्लीपिंग बैग में चला तो गया पर देर रात तक मुझे नींद नहीं आई।
मैं बस उनके घर और उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में देर तक सोचता रहा और समझ में आया कि इस दुनिया में कितने अच्छे लोग हैं। घर में कुछ हो या ना हो पर दिल में जगह होती है।
किसी तरह नींद तो आई लेकिन सुबह जल्दी उठ गया क्योंकि जिस अगले गांव में जाना था वहां का रास्ता बहुत लंबा था। चलते चलते मैंने कृतज्ञता जाहिर की।
साथ ही साथ कुछ पैसे देने की कोशिश की जोकि बहुत ही मामूली थे। मुश्किल से हजार बारह सौ रुपए। पर उन्होंने लिए नहीं और साइकिल से जंगल तक छोड़ने के लिए भी आये।
मुझे बहुत बुरा लग रहा था। हम किसी होटल में रुकते तो भी दो तीन हजार तो खर्च होते ही ना? यह दुख मुझे कई दिनों तक परेशान करता रहा।
मैं उड़ीसा में तक़रीबन एक महीने तक रहा। हर दिन किसी ना किसी के घर में रुकना हुआ। पर जब भी मैंने थोड़ा बहुत पैसे देने की कोशिश की लोगों ने साफ साफ मना कर दिया।
मुझे गिल्ट हो रही थी कि मुझे तो घूमने के पैसे मिलते हैं और मैं लोगों के यहां फ्री में रुक रहा हूं। इसलिए, सोचा जंगल और नदी के किनारे रुक जाऊंगा पर किसी के घर फ्री में नहीं रुकूंगा।
कितने मुश्किल से ये लोग कमाते और जीवन जीते हैं। कई लोग तो ऐसे होते हैं जिनके पैर में जूते और चप्पल तक नहीं होते।
मैंने दो चार रातें जंगल और पहाड़ में भी बिताए। पर मज़ा नहीं आया तो मन में एक तरकीब सूझी। मैं जिस घर में भी रूकता, डायरेक्ट उनको पैसे देने की बजाय कुछ पैसे बेड पर या फिर तकिए के नीचे रखकर आ जाता था।
अब भी यही करता हूं। यह पैसे ज्यादा नहीं बस हजार बारह सौ ही होते हैं पर इतने में दो दिन का राशन तो आ ही जाते होंगे।
मुझे भी अब किसी तरह की गिल्ट नहीं होती कि अपनी यात्राओं के लोगों के घर में मैं फ्री में रूकता हूं। मैं यह नहीं कहता कि किसी को दस पांच हजार दो।
लेकिन हजार बारह सौ तो से ही सकते हो ना? फ्री ट्रैवल, ट्रैवल विदाउट मनी सुनने में थोड़ा पैसिनेटिंग लगता है।
लेकिन आज के जमाने में जब आप राह चलते हुए अर्न कर सकते हो, घूमते हुए, कहीं भी रहते हुए, काम कर सकते हो तो, फ्री में घूमने पर इतना जोर क्यों से रहे हो।
जितना लोग कर सकते हैं, लोग करते हैं। हम लोग क्या इतना लाचार होते हैं कि जिसके घर पर रुक रहे हैं, जिनके घर का खाना खा रहे हैं, उनकी थोड़ी सी आर्थिक मदद कर दें।
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