Saturday, July 26, 2025

आदिवासी नायकों से सजा है मुंडा जनजाति का इतिहास [The history of Munda tribe is decorated with tribal heroes]

रांची। भगवान बिरसा मुंडा झारखंड के अमर शहीद आंदोलनकारी थे। इन्हें राज्य में भगवान का दर्जा प्राप्त है।

जहां भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के दात खट्टे किये, तो वहीं मंदरा मुंडा ने छोटानागपुर के आदिवासियों को जीने की कवा सिखाई।

जयपाल सिंह मुंडा ने हॉकी में भारत को ओलंपिक मेडल दिलाया। वहीं लेखक सोमा मुंडा ने छोटानागपुर के आदिवासियों की गौरव गाथा को एक आकार दिया, तो डॉ रामदयाल मुंडा ने आदिवासी साहित्य और संस्कृति को पहचान दी।

यहां इन नायकों की चर्चा इसलिए हम कर रहे हैं कि ऐसे ही नायकों से सजा है मुंडा समाज का इतिहास।

आज आइडीटीवी इंद्रधनुष के स्पेशल सेगमेंट झारखंड की जाति और जनजाति की इस कड़ी में हम आपका परिचय मुंडा जनजाति से कराने जा रहे हैं।

झारखंड की तीसरी बड़ी आबादी है मुंडा जनजाति की

मुंडा जनजाति देश के सबसे पुराने और बड़े जनजातियों में से एक है। इस जनजाति का इतिहास महाभारत काल से पहले का है।

कई धर्मग्रंथ में इस जनजाति का इतिहास मिलता है। बताया जाता है कि मुंडाओं की उत्पत्ति पिठौरिया के पास स्थित एक गांव से है।

यहां मुंडाओं के पहले राजा मंदरा मुंडा की प्रतिमा भी सदियों से स्थापित है। पिठौरिया चौक के पास एक बड़ा तालाब है। इसका नाम अंधेरिया इंजोरिया तालाब है।

इससे मुंडा समाज की कई मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ये तालाब उनके लिए काफी पवित्र माना जाता है। आज भी इस तालाब में लोग पूजा और स्नान करने के लिए आते हैं। मुंडा जनजाति झारखण्ड की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है।

ऑस्ट्रोलॉयड प्रजाति से संबंधित है मुंडा जनजाति

प्रजातीय दृष्टि से मुंडा को-प्रोटो-ऑस्ट्रोलॉयड समूह में रखा जाता है। रांची जिला इस जनजाति का मुख्य निवास स्थान है।

रांची के अलावा गुमला, सिमडेगा, पश्चिमी सिंहभूम एवं सरायकेला खरसावां जिले में भी इनकी अच्छी-खासी संख्या है।

कोल नाम से भी जाने जाते हैं मुंडा

मुंडा जनजाति को कोल के नाम से भी जाना जाता है। तमाड़ क्षेत्र में रहने वाले मुंडा तमाड़िया मुंडा या पातर मुंडा के नाम से जाने जाते हैं। ये स्वयं को होड़ोको कहते हैं।

ये अपने गोत्र को किली कहते हैं। मुंडा लोग मुंडारी भाषा बोलते हैं। यह भाषा ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा-परिवार के अंतर्गत आती है। मुंडा अपनी भाषा को होड़ो जगर कहते हैं।

मुंडा समाज की पारिवारिक व्यवस्था

मुंडा जाति में एकल एवं संयुक्त दोनों तरह के परिवार मिलते हैं। अधिकांशतः एकल परिवार ही पाया जाता है। इनमें वंशकुल की परंपरा काफी महत्वपूर्ण है, जिसे ये खूंट कहते हैं।

340 गोत्रों के मालिक हैं मुंडा

मुंडा परिवार पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय होता है। पिता ही परिवार का मालिक होता है। संतानों में भी पिता का ही गोत्र चलता है। रिजले ने मुंडा जनजाति के 340 गोत्रों का जिक्र किया है।

सोमा सिंह मुंडा ने अपने संक्षिप्त मोनोग्राफ ‘मुंडा’ में मुंडा जनजाति की 13 उपशाखाओं की चर्चा की है, लेकिन मुख्य रूप से दो शाखाओं को माना है- (1) महली मुंडा एवं (2) कंपाट मुंडा।

मुंडा लोगों में समगोत्रीय विवाह वर्जित है। इनका मुख्य देवता सिंगबोंगा है। सिंगबोंगा पर सफेद फूल, सफेद भोग-पदार्थ एवं सफेद मुर्गा की बलि चढ़ाई जाती है।

दो तरह के मुखिया होते हैं मुंडा मे

प्रत्येक मुंडा गांव में दो तरह के मुखिया होते हैं। एक धार्मिक मुखिया जिसे पाहन कहा जाता हैं। दूसरा प्रशासकीय मुखिया जिसे मुंडा कहा जाता हैं। पाहन का सहायक पुजार या पनभरा कहलाता है। इस जनजाति में डेहरी या देवड़ा ग्रामीण पुजारी होते हैं। देवड़ा झाड़-फूंक का कार्य करते हैं।

मुंडाओं की प्रसिद्ध लोक-कथा सोसो बोंगा इनकी परंपराओं एवं विकास की अवस्थाओं पर प्रकाश डालती है।

मुंडा जनजाति के प्रमुख पर्व

इस जनजाति के मुख्य पर्व सरहुल (बा-परब), करमा, सोहराई, बुरु पर्व, माघे पर्व, फागू पर्व, बतौली, दसाई, सोसोबोंगा, जतरा आदि हैं।

मुंडा गांव में तीन प्रमुख स्थल होते हैं- सरना, अखड़ा और ससान। इस जनजाति में पूजा स्थल को सरना एवं पंचायत स्थल को अखड़ा कहा जाता है।

अखड़ा गांव के बीच का खुला स्थल होता है, जहां पंचायत की बैठक होती है और रात्रि में युवक-युवतियां एकत्र होकर नाचते-गाते हैं।

जिस स्थान पर इनके पूर्वजों की हड्डियां दबी होती हैं, उसे ससान कहा जाता है। ससान यानी समाधि-स्थल में मृतकों की पुण्य-स्मृति में पत्थर के शिलाखंड रखे जाते हैं जिसे ससान दिरि कहा जाता है। इसे हड़गड़ी भी कहते हैं।

मुंडा समाज में गांव के झगड़ों का निपटारा-ग्राम-पंचायत करता है। इसका प्रधान मुंडा होता है। वह गांव का मालिक होता है, जिसे हातु मुंडा भी कहते हैं।

मुंडा समाज में अंतिम संस्कार की विधि

मुंडा समाज में शव को जलाने और गाड़ने की दोनों प्रथाएं पायी जाती हैं। हालांकि दफनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है।

सासान में मृतकों के स्मृति में पत्थर के शिलाखंड रखे जाते हैं जिसे सासान दीरी कहते हैं। सासान में जुगटोपा समारोह के साथ मृतक व्यक्ति की हड्डियों को गाड़ी जाती है। ये लोग मृतक के आत्मा को विशेष रस्म के जरिए घर में लाते हैं।

मुंडा जनजाति का इतिहास

अब मुंडा जाति की उत्पत्ति और इसके इतिहास पर नजर डालते हैं। मुंडा ऑस्ट्रेलियाईड प्रजाति के हैं जो पूर्वी एशिया होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में आ बसे, इनका आगमन आज से लगभग 600 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है।

इनकी भाषा ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा समूह से संबंधित है। मुंडा जनजाति हजारो वर्षों से छोटानागपुर के पठारों में निवास करती आ रही है। इनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति है, जिनमें से कुछ का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं।

अलग वेशभुषा और शैली

इनकी वेशभुषा की शैली भी अलग है। मुंडा पुरूष लंगोटी पहनते थे जिसे ये लोग बटोय कहते हैं, मुंडा स्त्रियां कपड़ा लपेटती थी जिसे पड़िया कहा जाता है।

ऐसे परंपरागत वस्त्र अब केवल त्योहारों और विशेष अवसरों पर देखने को मिलते हैं। इस जनजाति में पुरुष जो कपड़ा पहनते हैं, वह बटोई या करेया एवं महिला जो कपड़ा पहनती है वह पारेया कहलाता है।

मुंडा लोगों का घर

मुंडा लोगों का घर मिट्टी का बना होता है, छत बांस और खपरैल की होती है। इस तरह से बने घर का तापमान सामान्य रहता है, इनपर सर्दी और गर्मी का प्रभाव कंक्रीट के घरों की तुलना मे कम पड़ता है।

इनके घरों में अधिकतर दो या तीन कमरे होते हैं जिसमे मांडी ओढ़ा नामक कमरे में सिर्फ घर के लोग ही आ जा सकते हैं, यहां पर ये लोग अनाज रखते हैं और यही पुरखों के आत्माओं के रहने की जगह भी है। रानू या हड़िया इनका प्रमुख पेय पदार्थ है।

मुख्य पेशा है कृषि

मुंडा जाति का मुख्य पेशा कृषि है। मुंडा लोग हिंदुओ से काफ़ी प्रभावित थे, मुंडा शब्द हिंदुओं द्वारा ही दिया गया है। मुंडा लोगों का आर्थिक जीवन आदिम जनजातियों से बेहतर माना जाता है।

इनके पास कृषि भी है। जीवन–यापन के लिए कृषि करते हैं, इसके अलावा जंगल से कंदमूल, फल और वनौषधि इकट्ठा करते हैं। प्रतिबंध लगने से पहले शिकार भी किया करते थे।

मुंडा जनजाति में लड़कियों को बचपन से घर का कामकाज सिखाया जाता है। घर के कामकाज का पूरा जिम्मा औरतों के हाथ में होता है।

मुंडा लोगों के गांव को हातु कहते हैं, और गांव के प्रधान को हातु मुंडा कहते हैं। मुंडा मतलब गांव का विशिष्ट व्यक्ति होता है। मुंडा गांव में पंचायत बैठने के स्थान और नाच–गान के मैदान को अखड़ा कहा जाता है।

मुंडा जनजाति के प्रमुख पर्व और त्योहार

मुंडा लोग प्रकृति पूजक है और इनके धर्म का आधार जीववाद है। मुंडा लोगों का सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व सरहुल है जिसे बा परब के नाम से जाना जाता है।

बतौली पर्व को छोटा सरहुल कहा जाता है। फसल की बुआई को ये लोग पर्व की तरह मनाते हैं, धानबुनी पर्व को ये लोग अनोबा पर्व कहते हैं। इनमें कान छेदन संस्कार होता है, जिसे तुकुई लुटुर कहते हैं।

मुंडा समाज का युवा गृह

युवागृह जनजातीय समाज का सामाजिक एवं सांस्कृतिक शिक्षण केंद्र होता है, जहां अविवाहित युवक–युवतियों को शिक्षा दिया जाता है।

मुंडा जनजाति के युवागृह को गीतिओना/गीतिओड़ा कहते हैं। इस संस्था में युवक–युवतियों द्वारा नृत्य–संगीत की भी प्रस्तुति दी जाती है। हालांकि जनजातियों की ऐसी संस्थाएं अब अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं।

मुंडा जनजाति में विवाह

मुंडा जनजाति के लोग विवाह को अरंडी कहते हैं, विवाह के दौरान गोत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, गोत्र के मिलने पर ही विवाह होता है।

गोत्र को ये लोग किली कहते हैं, और इनके 300 से भी ज्यादा गोत्र है। समगोत्रीय विवाह वर्जित है।

इनमें दहेज प्रथा नहीं है, विवाह के लिए वधु मूल्य देना पड़ता है। वधु मूल्य को ये लोग गोनोंग कहते हैं। विवाह के दौरान समधी भेंट होता है जिसे होपा रूपा कहते हैं।

मुंडा जनजाति की एक खासियत है कि इनमें विधवा पुनर्विवाह होता है, विधवा विवाह को ये संगाई कहते हैं। इनमें जनजाति के बाहर विवाह करना वर्जित है।

तलाक को साकमचारी के नाम से जाना जाता है। इनमे राजी–खुशी विवाह, हरण विवाह, हठ विवाह, संगाई विवाह, आयोजित विवाह, सेवा विवाह होती हैं।

मुंडा लोगों के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा हैं, इनके पूजा स्थल को सरना कहा जाता है। ग्राम देवता को ये लोग हातु बोंगा कहते हैं और कुल देवता को ओड़ा बोंगा।

इनके गांव की सबसे बड़ी देवी देशाउली हैं, पहाड़ देवता को ये लोग बुरू ओंगा कहते हैं। इकिर बोंगा इनके जलदेवता है। ये लोग प्रकृति पूजक है और टोटेम या इष्ट चिन्ह की पूजा करते हैं, गांव के पुजारी को पाहन कहते हैं।

मुंडा जनजाति के लोग झाड़फुंक में विश्वास रखते हैं, इनके झाड़फुंक करने वाले को देवड़ा कहते हैं। प्राथमिक उपचार के लिए ये झाड़फूंक और जड़ी–बूटियों को प्राथमिकता देते हैं।

मुंडा जनजाति के नायक

भगवान बिरसा मुंडा भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के एक महानायक थे। झारखंड में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया था।

आम लोगों के प्रति समर्पण के कारण ही इन्हे भगवान का दर्जा मिला और इन्हे धरती आबा कहा गया। बिरसा मुंडा जी के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बिरसाइत कहते हैं।

बिरसा मुंडा जी का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था, इन्हीं के जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए झारखंड द्वारा 15 नवंबर 2000 को राज्य का दर्जा लिया गया।

झारखंड में 15 नवंबर के दिन राज्य स्थापना दिवस मनाया जाता है। बिरसा मुंडा का निधन 9 जून 1900 को हुआ।

मुंडा जनजाति के एक और नायक हैं मंदरा मुण्डा। वह सुतियाम्बे के मुण्डा राजा थे। मुंडा जनजाति उन्हीं की वंशज मानी जाती है।

जयपाल सिंह मुण्डा की उपलब्धियों ने मुंडा जनजाति की शान बढ़ा दी। ओलंपिक में सर्वप्रथम स्वर्ण पदक दिलाने वाले भारतीय हॉकी टीम के कप्तान जयपाल सिंह एक शानदार खिलाड़ी और कप्तान थे। जयपाल सिंह मुंडा झारखंड अलग राज्य आंदोलन के भी नायक रहे।

राम दयाल मुण्डा को आदिवासी मामलों के विद्वान माना जाता है। वह रांची यूनिवर्सिटी के कुलपति भी रहे। देश-विदेश में उन्होंने झारखंड के आदिवासी यहां की संस्कृति और सभ्यता का प्रचार प्रसार किया।

कड़िया मुण्डा भी मुंडा जनजाति के नायकों में एक हैं। वह एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ है। हालांकि अब उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया है।

खूंटी लोकसभा सीट से सांसद रहे। कई बार भारत सरकार में मंत्री रह चुके है और लोकसभा में वह उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं।

मुंडा जनजाति के अर्जुन मुंडा झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री रहे। वह तीन बार झारखंड के सीएम रहे। केंद्र में मंत्री भी रहे।

इसके अलावा नीलकंठ सिंह मुंडा, खूंटी के मौजूदा सांसद कालीचरण मुंडा जैसे कई नाम झारखंड और देश की राजनीति में सक्रिय हैं।

दर्शकों आज हमने आपका परिचय मुंडा जनजाति से कराया। यदि आप किसी खास जाति या जनजाति के बारे में जानना चाहते हैं, तो हमें जरूर बतायें..और जुड़े रहें आइडीटीवी इंद्रधनुष के साथ..धन्यवाद..

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Birsa Munda Andolan: बिरसा मुंडा आंदोलन कब हुआ

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