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    Home » भूले बिसरे लीडर्स – 4, शैलेंद्र महतो: [Forgotten Leaders-4, Shailendra Mahto]
    Jharkhand Politics

    भूले बिसरे लीडर्स – 4, शैलेंद्र महतो: [Forgotten Leaders-4, Shailendra Mahto]

    IDTV IndradhanushBy IDTV IndradhanushSeptember 22, 2024Updated:September 22, 2024No Comments6 Views
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    रांची। आइडीटीवी पॉलिटिक्स के स्पेशल सेगमेंट झारखंड के भूले-बिसरे लीडर्स की चौथी कड़ी में हम बात करेंगे एक छोटे से गांव में जन्मे एक आंदोलनकारी के बारे में। जिन्होने झारखंड अलग राज्य आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई।

    हम बात कर रहे हैं कोल्हान के दिग्गज नेता शैलेंद्र महतो की। शैलेंद्र महतो पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा में ही थे।

    वह कुड़मी समाज के बड़े नेता माने जाते हैं। वह जमशेदपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से दो बार संसद रहे हैं।

    महतो का जन्म 11 अक्टूबर 1953 में चक्रधरपुर के पास सेताहाका गांव में रबी चरण महतो और लुधी रानी के घर हुआ था।

    उनका विवाह आभा महतो से हुआ है, जो एक राजनीतिज्ञ भी हैं। आभा महतो भी जमशेदपुर से सांसद रह चुकी हैं। शैलेंद्र महतो के दो बेटे हैं।

    10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ अध्यात्म की खोज में निकल गये

    शैलेंद्र महतो कुड़मी किसान समुदाय से हैं। उनके पिता रबी चरण महतो एक सरकारी कर्मचारी थे और उनकी मां लुधी रानी घर की देखभाल करती थीं।

    शैलेंद्र महतो ने 10वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ कर आध्यात्म की खोज के लिए अपना जीवन समर्पित करने की ठानी और घर छोड़ दिया।

    उन्होंने कई तीर्थ स्थलों पर जाकर अध्यात्म की खोज करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें मार्गदर्शन के लिए कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं मिला।

    इसके बाद वह घर लौट आये। घर लौटने पर उन्होंने साहित्य और लेखन में अपनी रुचि दिखाई और पढ़ाई जारी रखने की सोची।

    दुबारा पढ़ाई शुरू करने के बाद कुछ दिन तो सबकुछ ठीक चला। फिर मन नहीं लगने के कारण उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में कूद पड़े।

    1973 में झारखंड आंदोलन से जुड़ गये

    साल 1973 में पहली बार शैलेंद्र महतो झारखंड आंदोलन में शामिल हुए। फिर उन्होंने झारखंडियों के लिए अलग राज्य की मांग को आगे बढ़ाया।

    पहली सामूहिक रैली में उन्होंने 20 मई 1973 को जमशेदपुर में भाग लिया था। इसके बाद 1975 में वे मौजूदा सांसद एनई होरो के साथ दिल्ली गए।

    होरो के साथ मिलकर उन्होंने झारखंड अलग राज्य के लिए चलो दिल्ली आंदोलन का आह्वान किया था। उनके साथ कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समूह दिल्ली गया, जहां झारखंड अलग राज्य के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ज्ञापन दिया गया।

    दिल्ली में ही विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्हें पहली बार अपने साथी कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार किया गया था। इस गिरफ्तारी के बाद शैलेंद्र महतो को नई पहचान मिली। पूरे झारखंड में आंदोलनकारी के रूप में वह जाने गये।

    1978 में शामिल हुए झामुमो मे

    इसके बाद झामुमो में एंट्री के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। 25 सितंबर 1978 को अपने गृहनगर चक्रधरपुर में आयोजित एक रैली में वे झारखंड मुक्ति मोर्चा में शामिल हो गए। झामुमो में शामिल होते ही उन्होंने झारखंड आंदोलन को नई दिशा दी।

    उन्होंने कोल्हान और रांची में झारखंड आंदोलन के एक नए चरण की शुरुआत की। झारखंड राज्य की मांग के साथ-साथ जल जंगल जमीन का नारा भी उन्होंने आगे बढ़ाया।

    यह झारखंड की भूमि के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की घोषणा थी। इसके बाद ही झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा मिली।

    उनके इस आंदोलन को महान झारखंड आंदोलन कहा गया। उनकी सभाओं में लोगों की अभूतपूर्व भीड़ उमड़ने लगी थी।

    इससे बिहार सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी थी। तब राज्य सरकार ने बलपूर्वक उनके आंदोलन को कुचलने का निर्देश दे दिया।

    इसके साथ ही महान झारखंड आंदोलन के नेताओं की तलाश शुरू हो गयी। इचाहातु, सेरेंगडा, गुआ, बाइपी और सरजोम हाटू जैसे गांवों में बिहार पुलिस ने कहर बरपा दिया।

    इस दौरान 18 आंदोलनकारियों की गोली लगने से मौत हो गई। इससे लोगों में और गुस्सा पैदा हुआ और बिहार सरकार के खिलाफ आंदोलन और तेज हो गया।

    पुलिस के साथ खूब हुई लुकाछिपी

    आंदोलन के वांछित नेता होने के कारण शैलेंद्र महतो पुलिस प्रशासन के टारगेट थे। स्थिति ये थी कि उन्हें देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया गया था।

    बिहार सरकार द्वारा उनके सिर पर 10,000 रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया गया था। उधर शैलेंद्र महतो पुलिस से छिपते फिर रहे थे।

    इसी बीच सेरेंगदा में वह आंदोलनकारियों के साथ सभा कर रहे थे। इसकी सूचना पुलिस को मिल गई और पूरा सभा स्थल घेर लिया गया।

    शैलेंद्र महतो को दखेते ही पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। परंतु शैलेंद्र महतो तो तब तक यहां के लोगों के हीरो बन चुके थे। गोलीबारी के दौरान दो बहनें उनकी ढाल बन गईं।

    उनकी रक्षा करते हुए दोनों बहने राहिल डांग और अजरमनी मामूली रूप से घायल हुई पर शैलेंद्र महतो को बचा लिया।

    वहीं, सभा में शामिल तीन लोग सोमनाथ लोंगा, दुबिया होनहागा और लूपा मुंडा ने इस गोलीबारी में अपनी जान गंवा दी। सभा में उपस्थित और भी कई लोग घायल हुए।

    शैलेद्र महतो वहां से बच निकले। पुलिस से लुकाछिपी के बीच जमशेदपुर में उनकी राजनीतिक जमीन तैयार हो गई। उन्हें जमशेदपुर में अपना भावी राजनीतिक आधार और निर्वाचन क्षेत्र मिल गया।

    इस तरह बढ़ते गये राजनीतिक सफर पर

    शैलेंद्र महतो ने 1984 में पहली बार जमशेदपुर से JMM के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन गोपेश्वर दास से हार गए।

    1986 में वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के सचिव बने और 1987 में पार्टी के महासचिव बने। वे 1988 में राजीव गांधी सरकार द्वारा झारखंड आंदोलन का समाधान लाने के लिए गठित झारखंड मामलों की समिति के सदस्य भी थे।

    झारखंड में कुड़मी समाज के बड़े नेताओं में शैलेंद्र महतो का नाम आता है। शायद इसी पहचान की बदौलत उन्होंने जमशेदपुर से 1989 और 1991 में झामुमो की टिकट पर चुनाव जीता।

    1989 में जमशेदपुर लोकसभा सीट से उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार चंदन बागची को हराकर पहली बार जीत का स्वाद चखा।

    1991 में तीसरी बार चुनाव लड़ा और भाजपा उम्मीदवार अमर प्रताप सिंह को हराकर जमशेदपुर से संसंद पहुंचे।

    तब राजनीतिक करियर आ गया विवादों मे

    पर दो साल बाद ही 1993 से उनका चक्र उल्टा घूम गया। यह साल यकीनन महतो के राजनीतिक करियर का सबसे बड़ा और सबसे विवादित साल था। महतो ऐसे विवाद में फंसे, जिससे राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर उन्हें बदनामी झेलनी पड़ी।

    कांग्रेस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित होने से शुरू हुआ मामला तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और उनके सहयोगी बूटा सिंह के खिलाफ मुकदमे और 3 साल की कैद के फैसले तक पहुंच गया, जिसे बाद में खारिज कर दिया गया।

    महतो उन 4 सांसदों में से एक थे, जिन्हें कथित तौर पर कांग्रेस सरकार को बचाए रखने के लिए लोकसभा में वोट के लिए रिश्वत दी गई थी।

    महतो पूरे मामले में अहम मोड़ तब बने जब उन्होंने सरकारी गवाह बनने का फैसला किया और इस तथ्य को स्वीकार किया कि उन्हें पैसे मिले थे।

    उनका कहना था कि यह पार्टी फंड का हिस्सा था और जिसे उन्होंने अनजाने में बैंक खाते में डाल दिया था।

    अंत में महतो समेत सभी सांसदों को सुप्रीम कोर्ट के एक निर्देश ने बचा लिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- “संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में अदालत में किसी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। कोई भी व्यक्ति संसद के किसी भी सदन द्वारा या उसके अधिकार के तहत किसी भी रिपोर्ट, पेपर, मत या कार्यवाही के प्रकाशन के संबंध में ऐसा उत्तरदायी नहीं होगा।”

    इस संवैधानिक संरक्षण का उद्देश्य संसद की स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा करना था। इस मामले को भारतीय संसद और भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण माना जाता है।

    पत्नी आभा महतो की हुई राजनीति में एंट्री

    1996 में इन विवादों के साये बाहर निकल कर महतो ने झारखंड आंदोलन पर ही ध्यान केंद्रीत करने का फैसला किया।

    उन्हें अहसास हो गया था कि सिर्फ एक राष्ट्रीय पार्टी ही झारखंड हित में मदद कर सकती है, इसलिए उन्होंने जेएमएम छोड़ने का फैसला कर लिया।

    घोटाले में सरकारी गवाह बन जाने के कारण वह ऐसे भी झारखंड मुक्ति मोर्चा में असहज हो गये थे। इसके बाद भाजपा के तत्कालीन महासचिव केएन गोविंदाचार्य ने उनसे संपर्क किया और महतो को भाजपा से टिकट देने की पेशकश की।

    भाजपा झारखंड में पैर जमाना चाहती थी। इसलिए अलग राज्य के आंदोलन का समर्थन भी कर रही थी। इसके बाद शैलेंद्र महतो रांची में आयोजित एक विशाल रैली में भाजपा के सदस्य बने।

    अटल बिहारी वाजपेयी ने व्यक्तिगत रूप से इस कार्यक्रम में भाग लिया, जो इस बात का प्रमाण था कि वे शैलेंद्र महतो और झारखंड आंदोलन के पीछे बीजेपी पूरी ताकत लगाने को तैयार है।

    1998 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने जमशेदपुर से टिकट के लिए माथापच्ची शुरू की।

    महतो पर विचार करते समय, शीर्ष भाजपा नेतृत्व ने उनकी पत्नी आभा महतो में सांसद उम्मीदवार के रूप में संभावना देखी, क्योंकि महतो के खिलाफ चल रहे मामले ने उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया था।

    तब 1998 के चुनाव में बीजेपी ने आभा महतो उम्मीदवार बनाया, जिन्होंने रूसी मोदी के खिलाफ जीत हासिल की। रूसी मोदी तब टाटा स्टील के पूर्व एमडी और जमशेदपुर का लोकप्रिय चेहरा थे।

    1999 में फिर लोकसभा चुनाव हुए, तब आभा महतो ने कांग्रेस उम्मीदवार घनश्याम महतो को हराकर अपनी सीट बरकरार रखी।

    धीरे-धीरे सिमटते गये शैलेंद्र महतो

    इसके बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ। पर अलग राज्य बनने के बाद शैलेंद्र महतो धीरे-धीरे सिमटते चले गये।

    लेखन महतो की प्राथमिक शक्तियों में से एक रही है, जिसने उनके राजनीतिक विचारों को हमेशा ही अलग धार दी। वह अपने शुरुआती दिनों से ही लेखक रहे हैं।

    जब वे चाईबासा से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका “सिंहभूमि एकता” के लिए लिखते थे, वहां से वे प्रभात खबर जैसे स्थानीय समाचार पत्र में चले गए।

    वे अपने लेखन के लिए व्यापक रूप से सम्मानित किये जा चुके थे। वह एक ऐसे नेता के रूप में जाने जाते थे जो आंदोलन की आवाज़ को अख़बारों तक पहुँचाने में माहिर था।

    उन्होंने या तो खुद लेख लिखे या झारखंडी लोगों और आंदोलन से संबंधित इतिहास और कानूनों जैसे विभिन्न पहलुओं के बारे में शिक्षित स्रोत बन गए।

    साल 2002 के बाद शैलेंद्र महतो लेख और साहित्य की दुनिया में डूब गये। एक तरह से शैलेंद्र महतो ने राजनीति से संन्यास ले लिया था।

    भाजपा की बैठकों में कभी-कभार ही शामिल होते थे। यह बात वर्ष 2014 के शुरुआत की है, जब झारखंड के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुधीर महतो का निधन हो गया था।

    इस घटना से शैलेंद्र महतो इतने दुखी हुए कि इन्होंने राजनीति छोड़ने का मन बना लिया था। अध्यात्म में रम गए थे। तब कहा कि वे कबीरदास के अनुयायी हैं।

    आध्यात्मिक पुस्तकें भी लिख रहे हैं। हालांकि तब भी उन्होंने कहा था कि पत्नी आभा महतो को राजनीति से संन्यास लेने का दबाव नहीं है।

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