Anand Kumar:
रांची। गुरुजी नहीं रहे. एक युग का पहिया थम गया. झारखंडियत की सबसे बड़ी आवाज शांत हो गयी. जब भी आदिवासी चेतना की बात होगी, जब भी जनसंघर्षों का जिक्र होगा, शिबू सोरेन का नाम लिया जाएगा. गर्व, आदर और सम्मान के साथ. गुरुजी सिर्फ एक जननेता नहीं थे। एक विचार थे. एक आंदोलन थे. उन्होंने दुःख को हथियार बनाया. संघर्ष को धर्म बनाया और सियासत को गरीब-गुरबों की आवाज. सिर्फ 12 साल के थे, तभी पिता की हत्या हो गई. सूदखोर महाजनों ने मार डाला. यह ज़ख्म जीवन भर बना रहा. बालक शिबू ने संकल्प लिया. बदला लेंगे, लेकिन सिर्फ पिता की हत्या का नहीं. पूरे आदिवासी समाज की पीड़ा का.
शिबू सोरेन, जिन्हें हम दिशोम गुरु और बाबा जैसे नामों से जानते हैं. जिनके बारे में संथाल के गांवों में किवदंतियां रही हैं कि वे कभी भी कहीं भी प्रकट हो सकते हैं और एक साथ कई जगहों पर प्रकट हो सकते हैं. वे झारखंड के पहले और अकेले ऐसा जननेता रहे, जिन्हें देखने-सुनने लाखों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. वे अब नहीं हैं. गुरुजी लंबे समय से बीमार चल रहे थे. इसी वजह से सक्रिय राजनीति से उन्होंने काफी पहले विश्राम ले लिया था. हाल ही में उनके बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जेएमएम के केंद्रीय अघ्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी. लेकिन क्या उनके नहीं रहने से सब वैसा ही रहेगा. गुरुजी का कद जितना बड़ा था, उनका आभामंडल जितना विशाल था, उसमें उनका बस होना ही काफी था. उनका होना ही झारखंडियों को आश्वस्त करता था. भले पार्टी और सरकार के फैसलों में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होता था, लेकिन उन फैसलों में उनकी छाप जरूर होती थी.
वे ऐसे वटवृक्ष थे जिसके गिर जाने से झारखंडियों और आदिवासियों के सिर से वो साया हट गया है, जिसने उन्हें अन्याय, जुल्म और शोषण से लड़ना सिखाया. जिसने दिल्ली की आंखों में आंख डाल कर कहा कि हमारी बात आपको सुननी होगी. उनपर कई इलजाम लगे, उन्हें जेल भी जाना पड़ा. बहुत सी चाही-अनचाही घटनाओं और फैसलों में उनका नाम आया. उनकी आलोचना भी हुई, बहुत से सवाल भी पूछे गये, लेकिन उनकी सरोकारों पर, आदिवासियों और झारखंड के लिए उनके प्रेम पर, उन्हें सदियों के शोषण और जुल्म से मुक्ति दिलाने की उनकी जिजीविषा पर कभी कोई सवाल नहीं उठा.
उनका राजनीतिक जीवन काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा, लेकिन न वह कभी झुके और न कभी टूटे. इसके बावजूद सार्वजनिक जीवन में जबतक उनके शरीर ने साथ दिया तब तक सक्रिय रहते हुए विशेषकर आदिवासियों के बीच नशापान के खिलाफ और शिक्षा के प्रति मुखर रहे. वे मानते थे कि आदिवासियों के लिए नशा अभिशाप है और आदिवासियों के खेतों और जमीनों को हड़पने का महाजनों का हथियार है।
आज 2025 में कुछ नेता झारखंड को बाहरी-भीतरी और जातियों में बांट कर चुनावी लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन गुरुजी ने हमेशा कहा कि झारखंड में रहनेवाला हर व्यक्ति झारखंडी है. करीब 38-40 साल पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि ‘दिकू’ हम उसे कहते हैं जिसके अंदर दिक्-दिक् यानी तंग करने की प्रवृत्ति हो. दिक् करनेवाला हमारा आदमी भी हो सकता है. दिकू-गैर आदिवासी नहीं है. हजारों गैर आदिवासियों का झारखंड के प्रति समर्पण है. जब शोषकों के खिलाफ हमला होता है, तो कुछ लोग कुप्रचार करते हैं कि दिकुओं को भगाया जा रहा है, ताकि आंदोलन के चरित्र उद्देश्य के बारे में लोगों का ध्यान मोड़ा जा सके
दोस्तों, हम अभी इतने समझदार नहीं हुए कि गुरुजी का मूल्यांकन कर पायें. इतिहास ही उनका मूल्यांकन करेगा. लेकिन, अब जबकि गुरुजी की छांव नहीं है, सवाल है कि आगे झारखंड कैसा होगा, झारखंड की राजनीति कैसी होगी. शिबू सोरेन को कभी सत्ता रास नहीं आयी, जब भी कुर्सी मिली, कुछ महीनों में चली गयी, लेकिन जनता के दिलों में उन्होंने स्थायी जगह बनायी है. भले ही हेमंत सोरेन ने विरासत संभाल ली है. भले ही उस विरासत को आगे बढ़ाते हुए अपनी पार्टी को लगातार दूसरी बार सत्ता दिलायी है. पिता ने तीन बार सीएम पद की शपथ ली थी, तो बेटे ने 12 साल में चार बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है. ये सब है, लेकिन गुरुजी अब नहीं हैं. गुरुजी की मौजूदगी ने हेमंत सोरेन को एक नैतिक संरक्षण दे रखा था. वो छतरी अब हट गयी है.
तो अब आगे का परिप्रेक्ष्य कैसा होगा. झारखंड आंदोलन में शिबू सोरेन ने एक ऐसे हस्तक्षेप के साथ प्रवेश किया था, जो उनके पूर्ववर्ती नेता नहीं कर पाये थे. यह हस्तक्षेप था सामाजिक सुधार के साथ आर्थिक सवालों पर आदिवासियों और मूलवासियों को गोलबंद करने का. धनबाद के पास टुंडी के प्रयोग को इस सन्दर्भ में समझा जा सकता है कि जहां एक ओर सूदखोरी और जमीन मुक्ति का सवाल था, तो दूसरी ओर नशामुक्ति और अशिक्षा से मुक्ति का सवाल भी था.
सही अर्थों में यह प्रयोग वर्ग चेतना की वह भूमि थी, जिसने झारखंड आंदोलन की वैचारिकता को नया स्वर दिया. उलगुलान के समय बिरसा मुंडा ने भी नशामुक्ति और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड आंदोलन एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी बदला और इसका व्यापक असर हुआ.
हेमंत सोरेन ने अब तक प्रशासनिक नेतृत्व बेहतर ढंग से निभाया है, लेकिन गुरुजी के जाने के बाद उन्हें राजनीतिक दृष्टा की भूमिका भी निभानी होगी. सवाल यह भी है कि क्या वे केवल सत्ता-प्रबंधक बने रहेंगे या उस सामाजिक क्रांति के वाहक भी बनेंगे, जिसका स्वप्न गुरुजी ने देखा था? क्या वे आदिवासी स्वीकार कर पायेंगे कि उनका भगवान, उनका मसीहा नहीं रहा. वो लोग जो मानते थे कि दिशोम गुरु जब चाहें जहां चाहें प्रकट हो सकते हैं, वे कैसे मानेंगे कि अब कभी नहीं दिखेंगे. शिबू सोरेन ने अपने संघर्ष और अपने व्यक्तित्व से आदिवासी समुदाय को जो प्रतिनिधित्व और मार्गदर्शन दिया था, जिन कुरीतियों के खिलाफ वे जीवन भर आदिवासियों को जागृत करते रहे, क्या उनकी कमी की भरपाई हो पायेगी. बहुत से ऐसे सवाल हैं जो गुरुजी के जाने के बाद उपजेंगे.
उनके जाने से झारखंड की राजनीति में एक युग का अंत हो गया है. यह केवल एक व्यक्ति का, एक नेता का जाना भर नहीं है, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन, और एक आत्मा का अवसान है, जिसने झारखंड को उसकी पहचान दिलायी थी. शिबू सोरेन न सिर्फ झारखंड आंदोलन के प्रणेता रहे, बल्कि उन्होंने राज्य निर्माण के बाद भी आदिवासी अस्मिता, अधिकार और नेतृत्व को एक नैतिक छतरी प्रदान की. गुरुजी एक ऐसे वटवृक्ष थे, जिनकी छांव में पार्टी की अंतर्कलह, सामाजिक असंतुलन और सत्ता विरोधी दबाव भी क्षीण हो जाते थे. अब हेमंत को न सिर्फ संगठन को संभालना होगा, बल्कि खुद को उस नैतिक नेतृत्व के रूप में भी स्थापित करना होगा, जिसकी छाया में आदिवासी समाज ने अपने संघर्षों को दिशा दी थी.
शिबू सोरेन का जाना झारखंड की राजनीतिक चेतना में एक खालीपन है. इतिहास भले आगे उनका मूल्यांकन करेगा, लेकिन वर्तमान को चलाने की जिम्मेदारी अब पूरी तरह से हेमंत सोरेन और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कंधों पर है. जनता की निगाहें सिर्फ शासन पर नहीं, नेतृत्व की चालढाल पर भी होंगी. अपने पिता के बीमार रहते हेमंत सोरेन ने जिस तरह उनकी देखभाल की. जैसे वे दिल्ली में लगातार डटे रहे.
पिता की सेवा के साथ राज्य की देखरेख की दोहरी जिम्मेदारी उन्होंने जिस शिद्दत से निभायी, और जिस तरह से शिबू सोरेन का अक्स हेमंत सोरेन के चेहरे पर उभर आया है, वह आश्वस्ति देता है कि गुरुजी कहीं गये नहीं हैं, वे हेमंत सोरेन में रच-बस गये हैं. अब हेमंत सोरेन पर एक नयी जिम्मेदारी आ गयी है. अब तक वे दिशोम गुरू के बेटे थे, लेकिन अब उन्हें दिशोम गुरु जैसा बनना है, क्योंकि झारखंड के आदिवासियों की आंखें अब हेमंत सोरेन में शिबू सोरेन को तलाश करेंगी.
हेमंत सोरेन के लिए शिबू सोरेन जैसा बनना मुख्यमंत्री बनने से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती है. ये बात हेमंत जानते हैं, तभी कहते हैं कि
मैं अपने जीवन के सबसे कठिन दिनों से गुज़र रहा हूँ।
मेरे सिर से सिर्फ पिता का साया नहीं गया,
झारखंड की आत्मा का स्तंभ चला गया।
बचपन में जब मैं उनसे पूछता था:
“बाबा, आपको लोग दिशोम गुरु क्यों कहते हैं?”
तो वे मुस्कुराकर कहते:
“क्योंकि बेटा, मैंने सिर्फ उनका दुख समझा
और उनकी लड़ाई अपनी बना ली।”
वो उपाधि न किसी किताब में लिखी गई थी,
न संसद ने दी –
झारखंड की जनता के दिलों से निकली थी।
‘दिशोम’ मतलब समाज,
‘गुरु’ मतलब जो रास्ता दिखाए।
और सच कहूं तो
बाबा ने हमें सिर्फ रास्ता नहीं दिखाया,
हमें चलना सिखाया।
हेमंत को पता है कि
बाबा का संघर्ष कोई किताब नहीं समझा सकती।
वो उनके पसीने में, उनकी आवाज़ में,
और उनकी चप्पल से ढकी फटी एड़ी में था।
हेमंत सोरेन जानते हैं कि
आज बाबा नहीं हैं,
तभी कहते हैं कि
उनकी आवाज़ मेरे भीतर गूंज रही है।
मैंने आपसे लड़ना सीखा बाबा,
झुकना नहीं।
मैंने आपसे झारखंड से प्रेम करना सीखा
बिना किसी स्वार्थ के।
आपने जो सपना देखा
अब वो मेरा वादा है।
मैं झारखंड को झुकने नहीं दूंगा,
आपके नाम को मिटने नहीं दूंगा।
आपका संघर्ष अधूरा नहीं रहेगा।
बाबा, अब आप आराम कीजिए।
आपने अपना धर्म निभा दिया।
अब हमें चलना है
आपके नक्शे-कदम पर।
झारखंड आपका कर्ज़दार रहेगा।
मैं, आपका बेटा,
आपका वचन निभाऊंगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि गुरुजी कहीं गये नहीं हैं, वे हेमंत बन गये हैं…
(नोटः लेखक हिन्दुस्तान जमशेदपुर के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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