रांची का जगन्नाथ मंदिर अपनी वास्तुकला, खूबसूरती की चमक से परे भक्ति के लिए प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह पवित्र स्थान शांति और सुकून के साथ ही प्राकृतिक सुंदरता के लिए पर्यटकों को आकर्षित करता है, जो इसे रांची में एक प्रिय स्थल बनाता है।राजधानी रांची के धुर्वा में स्थित जगन्नाथ मंदिर का निर्माण ओड़िशा के जगन्नाथ मंदिर की वास्तुकला को ध्यान में रखकर कराया गया, यह बेहद भव्य है।
जगन्नाथपुर मेले का इतिहास:
जगन्नाथ मंदिर भारत के झारखंड के रांची में स्थित एक हिंदू मंदिर है जो भगवान जगन्नाथ को समर्पित 17वीं शताब्दी का मंदिर है । इसका निर्माण बड़कागढ़ जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर अनि नाथ शाहदेव ने 1691 में करवाया था।
25 दिसंबर 1691 को पूरा हुआ। मंदिर एक छोटी पहाड़ी की चोटी पर है। ओडिशा के पुरी में प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर के समान ,यह मंदिर उसी स्थापत्य शैली में बनाया गया है। इस मंदिर में आषाढ़ के महीने में एक वार्षिक मेला और रथ यात्रा आयोजित की जाती है , जिसमें न केवल रांची से बल्कि पड़ोसी गांवों और कस्बों से भी हजारों आदिवासी और गैर-आदिवासी भक्त आते हैं और इसे बहुत धूमधाम और जोश के साथ मनाया जाता है।
पहाड़ी की चोटी पर बने इस मंदिर में आने वाले ज़्यादातर लोग सीढ़ियाँ चढ़ते हैं या वाहन से आते हैं। इस मंदिर को मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने वर्ष 1691 में अपवित्र कर दिया था और इसमें तोड़फोड़ की थी।
जगन्नाथपुर मेला का इतिहास और महत्व:
रथ यात्रा, जिसे रथ उत्सव भी कहा जाता है, एक प्रमुख हिंदू त्योहार है। यह त्योहार हर साल आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, और सुभद्रा को रथों में बिठाकर शहर की सड़कों पर निकाला जाता है। इस यात्रा में हज़ारों लोग शामिल होते हैं।
क्या हैं मान्यताएं?
भगवान जगन्नाथ की ये रथ यात्रा हर साल आषाढ़ महीने की द्वितीय तिथि पर निकाली जाती है। इस रथ यात्रा के निकलने के पीछे कई मान्यताएं कहते हैं कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के रूप में भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम के साथ अपनी बहन सुभद्रा को नगर घुमाने के लिए ले जाते हैं.
ऐसा माना जाता है कि इतिहास में भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर घूमने की इच्छा ज़ाहिर की जिसके बाद बहन की इच्छा पूरा करने के लिए भगवान जगन्नाथ ने 3 रथ बनवाए, और सुभद्रा को नगर घुमाने के लिए रथ यात्रा पर ले गए।
सबसे आगे वाला रथ भगवान बलराम का, बीच वाला रथ बहन सुभद्रा के और सबसे पीछे वाला रथ भगवान जगन्नाथ का होता है। इसी मान्यता के साथ एक और कहानी जुड़ी है कहते हैं जब भगवान जगन्नाथ सुभद्रा को नगर घुमाने के लिए रथ यात्रा पर निकले तो रास्ते में ही उनकी मौसी के घर गुंडिचा भी गए और वहां 7 दिन ठहरे भी. जिसके बाद से ही हर साल इस रथ यात्रा को निकालने की परंपरा शुरू हुई।
रथ यात्रा के बारे में ज़रूरी बातें:
इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, और सुभद्रा की पूजा की जाती है।भगवान बलभद्र के रथ में 16 पहिए, भगवान जगन्नाथ के रथ में 18 पहिए, और सुभद्रा के रथ में 14 पहिए होते हैं।
इस यात्रा में भक्त सड़कों पर जुलूस के रूप में रथों को खींचते हैं।
चावल और गुलाल छिड़ककर मूर्तियों की पूजा करने के लिए लाखों लोग इकट्ठा होते हैं।
इस यात्रा का मुख्य कारण हिंदू पौराणिक कथाओं में निहित है।
यह यात्रा एक दिव्य पारिवारिक पुनर्मिलन और भाई-बहनों के बीच के बंधन का प्रतीक है।
इस त्योहार से अंग्रेज़ी शब्द ‘जगरनॉट‘ लिया गया है।
रथ यात्रा का समापन:
रथ यात्रा का समापन निलाद्री विजया नाम के रिवाज से होता है जिसमें भगवान के रथों को खंडित कर दिया जाता है. रथों का खंडन इस बात का प्रतीक होता है कि रथ यात्रा के पूरे होने के बाद भगवान जगन्नाथ इस वादे के साथ जगन्नाथ मंदिर में वापस लौट आए हैं कि अगले साल वे फिर से भक्तों को दर्शन देने आएंगे।
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