Hemant government:
आनेवाले दिनों में झारखंड की राजनीति में बड़ा परिवर्तन होने के आसार हैं। हालांकि जो लोग सत्ता परिवर्तन की उम्मीद लगाये हैं, जो लोग यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि जेएमएम और बीजेपी की सरकार झारखंड में बनेगी, ऐसा कुछ नहीं होगा। अलबत्ता जो संकेत मिल रहे हैं, उससे लग रहा है कि झारखंड में राजनीति का डायनेमिक्स जरूर बदलेगा। सरकार जरूर हेमंत सोरेन की ही रहेगी। उसमें कांग्रेस भी रहेगी और आरजेडी भी। आप सोचेंगे कि ये क्या बात हुई भला कि जब सबकुछ जस का तस ही रहेगा तो बदलेगा क्या। तो जैसा मैंने पहले कहा कि डायनेमिक्स बदल जायेगा। आइये समझते हैं कि चीजें किस दिशा में जाती दिख रही हैं
हम सबने देखा कि गुरुजी के निधन पर प्रधानमंत्री मोदी उनके अंतिम दर्शन को पहुंचे। गुरुजी के शरीर के चारों तरफ परिक्रमा की। सिर की तरफ से भी और पैरों की तरफ से भी, दोनों तरफ से प्रणाम किया। हेमंत सोरेन को गले लगाकर सांत्वना दी। झारखंड भाजपा के तमाम बड़े नेता श्रद्धांजलि देने नेमरा पहुंचे। फिर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह संस्कार भोज में आये। पार्टी और सरकार में कद भले अमित शाह मोदी के बाद नंबर टू की हैसियत रखते हों, लेकिन भारत सरकार के प्रोटोकॉल में मोदी के बाद दूसरे नंबर पर राजनाथ सिंह ही आते हैं। तो निधन पर मोदी का आना और श्राद्ध में राजनाथ का पहुंचना क्या संकेत देता है।
राजनीति पर गहरी नजर रखनेवाले इसमें भी कोई गहरी बात देख रहे हैं। मेरे कुछ पत्रकार मित्रों ने कहा कि झारखंड अब उसी राह पर चल रहा है, जिस राह पर लंबे अरसे तक ओडिशा की राजनीति चली और जिस तर्ज पर बिहार की राजनीति चल रही है। यानी भाजपा ने कहीं न कहीं ये मान लिया है कि झारखंड में हेमंत सोरेन से टकराने की उसकी ताकत अब नहीं रही। इसलिए अब उसकी रणनीति बदलेगी।
और हेमंत सोरेन को भी समझ में आ गया है कि अब भी अगर वे केंद्र की सत्ता से टकराव मोल लेते रहे तो उनकी राह में मुश्किलें ज्यादा आयेंगी। यह बात सही है कि केंद्र से टकराव लेने के कारण उनकी गिरफ्तारी हुई, और इसका चुनावी फायदा भी उन्हें मिला। उनको जनता की सहानुभूति मिली, लोकप्रियता में इजाफा हुआ और सबसे बढ़कर कल्पना सोरेन के रूप में परिवार में ऐक ऐसा नेता मिला, जिसकी प्रतिभा और क्षमता को झारखंड शायद कभी देख नहीं पाता अगर हेमंत जेल न गये होते।
अगर कल्पना सोरेन भी देर-सवेर सीधे रास्ते राजनीति में आतीं, तो वे भी नेपोटिज्म का प्रोडक्ट मान ली जातीं। और अपने आप को साबित करने में उन्हें बहुत वक्त लग जाता। उनकी हैसियत हमेशा हेमंत सोरेन की पत्नी की रहती, जिसे अनुकंपा के तौर पर सीधे सत्ता की राजनीति में हिस्सेदारी मिल जाती। लेकिन हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी ने कल्पना सोरेन को वह मंच दिया, जो सामान्य तौर पर मिलना मुश्किल था।
आपको याद हो कि न याद हो, साल 2003-04 था। रांची के उभरते क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी को इंडिया -ए टीम के साथ ज़िम्बाब्वे और केन्या टूर के लिए चुना गया था। इंडिया ए के स्क्वाड में दो विकेटकीपर थे – दिनेश कार्तिक और महेंद्र सिंह धोनी। लेकिन तभी एक अहम घटना हुई। बीच दौरे पर दिनेश कार्तिक को सितंबर 2004 में होनेवाले इंग्लैंड टूर के लिए टीम इंडिया में बुला लिया गया। नतीजा यह हुआ कि इंडिया -ए टीम में धोनी को खेलने का मौका मिल गया। और फिर धोनी ने इस मौके को जर्बदस्त तरीके से भुनाया।
केन्या में खेले गये ट्राई-नेशन टूर्नामेंट जो भारत-ए, पाकिस्तान-ए और कीनिया के बीच खेला गया, उन्होंने पाकिस्तान-ए के खिलाफ धमाकेदार नाबाद 119 की पारी खेली। फिर फाइनल में इसी टीम के खिलाफ ताबड़तोड़ 70 रन ठोके। धोनी ने पूरी सीरीज़ में लगभग 360 रन बनाये। उनके स्ट्राइक रेट और पावर हिटिंग ने उनको कप्तान सौरव गांगुली और चयनकर्ताओं की नज़र में ला दिया।
इसके बाद 2004 के दिसंबर में उन्हें बांग्लादेश टूर पर भारत की वनडे टीम में चुना गया। पहले मैच में वे शून्य पर रन आउट हुए, लेकिन 2005 में पाकिस्तान के खिलाफ 148 और श्रीलंका के खिलाफ 183* ने उनकी जगह पक्की कर दी। दो साल बाद वे 2007 में पहले टी-20 वर्ल्ड कप के लिए टीम इंडिया के कप्तान बने और कप जीत कर इतिहास रचा। इसके बाद वे क्रिकेट के सभी प्रारूपों में भारत के सबसे सफल कप्तान और सबसे लोकप्रिय खिलाड़ी बने और रिटायर होने के बाद भी उनका क्रेज कम नहीं हुआ है।
लेकिन सोचिए, दिनेश कार्तिक इंडिया ए की टीम में बने रहते और धौनी बिना कोई मैच खेले लौट आते, तो क्या होता। उन्हें अगला मौका कब मिलता और मिलता तो वे क्लिक कर पाते या नहीं, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता, लेकिन पाकिस्तान-ए की उस टीम के खिलाफ जिसमें कामरान अकमल, मिस्बाहुल हक और इफ्तेखार अंजुम जैसे खिलाड़ी थे, उनके प्रदर्शन ने उन्हें मौका दिलाया।
ठीक ऐसा ही मौका कल्पना सोरेन को मिला, जब हेमंत सोरेन को जेल जाना पड़ा। ये कोई च्वाइस नहीं थी। मजबूरी थी। घर में ही विरोध था। भाभी सीता सोरेन ने गुरुजी की राजनीतिक विरासत पर दावा ठोक दिया था। सोशल मीडिया पर कई दिन संग्राम छिड़ा। फिर कल्पना सोरेन की गिरिडीह की वो पहली सभा। उनकी आंखों से बहते आंसुओं के साथ जनता भी पिघल गयी। उनके पब्लिक अपीयरेंस और उनकी संवाद शैली ने जादू का काम किया। लोग उन्हें देखने हजारों-लाखों की संख्या में उमड़ने लगे।
अकेले अपने बूते कल्पना ने लोकसभा चुनाव की कमान संभाली। जेएमएम को तीन और कांग्रेस को दो सीटों पर जीत मिली। भाजपा और एनडीए 12 से 9 सीटों पर आ गया, तो यह हेमंत सोरेन को जेल भेजने और कल्पना सोरन के मैदान में उतरने का संयुक्त परिणाम था। और इसी का परिणाम था कि विधानसभा के चुनाव में पति-पत्नी की इस जोड़ी ने 81 में से 56 सीटों पर अपने गठबंधन को जीत दिलायी।
अब समय बीतने के साथ हेमंत सोरेन और मजबूत होते जा रहे हैं। अभी शिबू सोरेन के बीमार पड़ने के बाद से उनके निधन और श्राद्ध तक जिस तरह उन्होंने साथ रहकर एक बेटे का फर्ज निभाय़ा, उसने उन्हें काफी सहानुभूति दिलाई। एक मेच्योर राजनेता के रूप में तो वे पहले ही पूरी तरह स्थापित हो चुके हैं। आज की तारीख में झारखंड में हेमंत सोरेन के पासंग भी कोई नेता नहीं है। भाजपा में बड़े नाम जरूर हैं, बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास और चंपाई सोरेन, लेकिन सबके सब अपना सर्वश्रेष्ठ समय गुजार चुके हैं और जनाधार खो चुके हैं।
तो कहने का मतलब यह है कि आज के दिन में हेमंत सोरेन झारखंड के सबसे बड़े नेता हैं। लोकप्रियता के मामले में भी और ताकत के मामले में भी। यह बात प्रधानमंत्री मोदी भी जानते हैं और राहुल गांधी भी। तो डायनेमिक्स भी अब इसी आधार पर रचा जायेगा।
आपको याद होगा ओडिशा में नवीन पटनायक का कालखंड। 24 साल वे लगातार मुख्यमंत्री रहे। अपने राज्य में अपराजेय लेकिन केंद्र सरकार से हमेशा बनाकर चले। कभी केंद्र की सत्ता से पंगा नहीं लिया, चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, सबसे बनाकर चले और इसका फायदा भी उन्हें मिला। ओडिशा में केंद्रीय योजनाएं लाना हो या केंद्र से पैसा लेना हो, नवीन पटनायक को कभी मुश्किल पेश नहीं आयी।
दूसरे नेता नीतीश कुमार हैं। पिछले 20 साल से वे बिहार की राजनीति के सर्वेसर्वा बने हुए हैं। चाहे राजद के साथ रहें या भाजपा के साथ, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री वही होते हैं। यानी जरूरी जरूरी हैं चाहे खुशी से या फिर मजबूरी में।
हेमंत सोरेन भी अब उसी स्थिति में आ गये हैं, जहां कभी नवीन पटनायक थे और जहां नीतीश कुमार हैं। झारखंड में भी अब वही होगा जो हेमंत सोरेन चाहेंगे।
अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, जब ऐसी खबरें चल रही थीं कि सरकार में कांग्रेसी मंत्री खुश नहीं हैं। कांग्रेस के विधायक सरकार के खिलाफ बयान दे रहे थे। चाहे राधाकृष्ण किशोर हों, चाहे रिम्स टू के मामले में बंधु तिर्की का बयान हो या फिर रांची स्मार्ट सिटी की जमीन के मामले में राजेश कच्छप का रवैया। उसके पहले जायें तो कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रदीप यादव भी सरकारी सिस्टम पर हमलावर थे। लेकिन इस नूरा कुश्ती का कोई फलाफल नहीं निकला।
हेमंत सोरेन किसी दबाव में नहीं हैं, यह साफ दिखता है। वे देख चुके हैं कि पिछले कार्यकाल में कांग्रेसी मंत्रियों के भ्रष्टाचार के किस्सों ने ही उनकी किरकिरी करायी थी। लेकिन इस बार कांग्रेसी मंत्रियों के कार्यकलापों पर भी हेमंत की न सिर्फ नजर हैं, बल्कि पकड़ भी है। पिछली बार जैसी आजादी नहीं है।
दूसरी तरफ हाल के समय में ऐसी चर्चाएं भी चली हैं कि जेएमएम और भाजपा मिलकर सरकार चला सकते हैं। भाजपा नेताओं के हेमंत सोरेन के प्रति रुख में आयी नरमी और केंद्रीय नेताओं की सहानुभूति के चलते इन चर्चाओं को बल मिला है, लेकिन फिलहाल इन खबरों में कोई दम नहीं है और ऐसा प्रयोग पहले हो चुका है। 30 दिसंबर 2009 को गुरुजी के नेतृत्व में जेएमएम और भाजपा की सरकार बनी थी। गुरुजी तब लोकसभा के सदस्य थे। इसके कुछ ही महीनों बाद अप्रैल 2010 में गुरुजी ने संसद में भाजपा के एक कटौती प्रस्ताव पर पर मनमोहन सरकार के पक्ष में वोट कर दिया। ताक में बैठी बीजेपी को मौका मिल गया।
भाजपा और जेएमएम दोनों को विधानसभा में 18-18 सीटें मिली थीं। बीजेपी ने दबाव डाला कि गुरुजी इस्तीफा दें और सरकार भाजपा के नेतृत्व में बने। गुरुजी ने इनकार कर दिया। कई दिन इसी तनाव में गुजरे। गुरुजी ने लाख सफाई दी कि उनका वोट गलती से यूपीए सरकार से पक्ष में चला गया, वे तो विरोध में वोट डालना चाहते थे, लेकिन भाजपा नहीं मानी। आखिर गुरुजी की सरकार में डिप्टी सीएम और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष रघुवर दास ने गवर्नर एमओएच फारूक को समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया।
30 दिसंबर 2009 को शिबू सोरेन ने इस्तीफा दे दिया और एक जून 2010 को झारखंड में राष्ट्रपति शासन लग गया। इन ढाई महीनों में काफी उतार-चढाव के बाद तय हुआ कि भाजपा की अगुवाई में सरकार बनेगी और शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत सोरेन अगली सरकार के डिप्टी सीएम होंगे। 11 सितंबर 2010 को अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हेमंत सोरेन और आजसू के सुप्रीमो सुदेश महतो डिप्टी सीएम बने।
कहा जाता है कि शिबू सोरेन सरकार के डिप्टी सीएम रघुवर दास जो उस समय झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी थे, अर्जुन मुंडा के सीएम बनने से बहुत निराश हुए थे। कारण यह था कि रघुवर दास को उम्मीद थी कि गुरुजी की सरकार में डिप्टी सीएम होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। और उन्होंने ही भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को सोरेन सरकार से समर्थन वापस लेने को उकसाया था, लेकिन भाजपा ने उनकी बजाय जमशेदपुर से लोकसभा सांसद अर्जुन मुंडा को तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। कारण यह था कि मुंडा जोड़-तोड़ की सरकार बनाने और चलाने के माहिर माने जाते थे।
मुंडा सरकार 18 जनवरी 2013 तक चली। 1932 के खतियान और आधे-आधे कार्यकाल तक सरकार चलाने के मुद्दे पर जेएमएम और भाजपा में गतिरोध खड़ा हुआ और जेएमएम ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मुंडा सरकार गिर गयी। एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया। 13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन ने झामुमो, कांग्रेस और आरजेडी के सहयोग से सरकार बनायी। 2014 के चुनाव में भाजपा और आजसू को बहुमत मिला और रघुवर दास का मुख्यमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ।
2019 के चुनाव में हेमंत सोरेन झारखंडी मुद्दों और रोजगार का मुद्दा उठाकर फिर उभरे और लगातार दो टर्म से मुख्यमंत्री हैं। तो हेमंत सोरेन दो बार भाजपा के साथ सरकार में रह चुके हैं। उन्हें काफी अनुभव भी हो चुका है। केंद्र की मोदी सरकार से खराब रिश्तों का अंजाम भी वे देख चुके हैं। इसलिए उन्हें पता है कि केंद्र के साथ अच्छे रिश्ते रखकर ही वे झारखंड के लिए केंद्रीय योजनाओं में हिस्सेदारी बढ़ा सकते हैं और नयी योजनाओं के लिए पैसा ला सकते है।
तो यही है वो बदलता डायनामिक्स। झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार कांग्रेस के सहयोग से चलेगी, लेकिन केंद्र से बेहतर रिश्ते रखेगी। आगे के लिए सभी संभावनाएं दोनों तरफ से खुली रखी जायेंगी। इससे कांग्रेस भी काबू में रहेगी और हेमंत सोरेन को पिछले कुछ समय से जिन दुश्वारियों से गुजरना पड़ा है, उससे भी उन्हें निजात मिल सकेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दुस्तान जमशेदपुर के पूर्व संपादक है)
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