रांची: ठंड के मौसम में गर्म और ऊनी कपड़ों के बिना आम लोगों के लिए रहना मुश्किल हैं, लेकिन प्रकृति की गोद नेतरहाट की पहाड़ी के आसपास में बसे गांवों में रहने वाले कई जनजातीय परिवारों की जीवनशैली को देखकर आप दंग रह जाएंगे।
असुर आदिम जनजाति के कई परिवार अब भी चकाचौंध की दुनिया दूर परंपरागत तरीके से ठंड, धूप और बारिश से बचाव करते आ रहे हैं। पत्तों में लिपटा शरीर और काले घुंघराले बाल यहां के असुरों की पहचान हैं। आज यह आदिम जनजाति झारखंड की विलुप्त होती जनजातियों में शामिल है।
पुरानी जीवनशैली और परंपरा कायमः
नेतरहाट पहाड़ी के निकट स्थित एक गांव के असुर बताते हैं कि समय के साथ कई परिवर्तन को देखने मिले, लेकिन अब भी उनकी पुरानी जीवनशैली और परंपरा कायम हैं। हर दिन सुबह-सुबह वो अपने परिवार और गांव के अन्य लोगों के साथ जंगल निकल जाते हैं।
जंगल में कई तरह के वन उपज और लकड़ियां एकत्रित कर उसे बाजार में बेचकर दो पैसा कमाते हैं, तो खाते हैं।
पत्तों से बना ‘छाता’ ठंड, बारिश और धूप से करता है बचावः
हर मौसम में जंगल के पत्ते ही उनके लिए रक्षा कचच होते हैं। हालांकि अब प्लास्टिक और कपड़े आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, इसके बावजूद गांव में खेती करने या जंगल जाने के दौरान वो अब भी पत्तों से बने ‘गूंगू’ का उपयोग करते हैं। एक ‘गूंगू’ बनाने में करीब 1000-1200 पत्तों का उपयोग होता है।
इसे पहने के बाद तेज ठंडी हवा से बचाव हो जाता हैं और ठंड में भी वो गर्मी महसूस करते हैं। वहीं बारिश के मौसम में इसे छाता की तरह उपयोग करते हैं। इसे पहन कर धान रोपनी और अन्य कृषि कार्य आसानी से बिना किसी परेशानी से कर पाते हैं।
वहीं बारिश के मौसम में इसमें वे अपने छोटे बच्चे को भी छिपा कर रखते हैं, ताकि वो भींगे नहीं। गर्मी के मौसम में यह कड़ी धूप से भी बचाव करता हैं।
गूंगू पहनने पर वज्रपात से भी होता है बचाव
असुर जनजाति की महिलाएं बताती हैं कि पत्तों का उपयोग सिर्फ छाता बनाने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि लाह के पत्ते से ढेपे, पोटोम और चुकड़ू भी बनाती है। जंगल में छाता ले जाना भूल जाने पर तत्काल पत्तों को जोड़ कर ढेपे का निर्माण किया जाता है।
वहीं पोटोम का उपयोग असुर महिलाएं धान रखने के लिए करती हैं। इसमें रखा अनाज तीन-चार वर्षा तक सुरक्षित रहता है और किसी तरह से अनाज को नुकसान नहीं पहुंचता या कीड़ा नहीं लगता है।
वहीं गूंगू पहनने के बाद वज्रपात से भी बचाव होता है। इसे पहनने वाले किसी भी व्यक्ति की मौत आसमानी बिजली गिरने से नहीं होती है।
जंगल और शिकार पर निर्भर है असुर जनजाति
विलुप्त हो रही असुर आदिम जनजातियां अब भी मुख्य रूप से पहाड़ों के किनारे बसे सुदूरवर्ती गांवों में रहती हैं। असुर जनजाति के लोग मुख्य रूप से जंगल और शिकार पर ही निर्भर है।
इस समुदाय के लोगों की पहचान कुछ दशक पहले तक पत्थर को गलाकर लोहा बनाने को लेकर भी होती थी, लेकिन अब जीविकोपर्जन के लिए मुख्य रूप से वनोत्पाद और कृषि पर ही निर्भर हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में असुर आदिम जनजाति से आने वाले लोगों की संख्या 22459 है।
असुर जनजाति में विवाह की अनोखी प्रथाः
असुरों की यह आम धारणा है कि बच्चे भगवान की देन हैं। यदि कोई स्त्री भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाती हैं, तो वो कभी मां नहीं बनेगी। इस जनजाति में बच्चों का जन्म अस्पताल की जगह घर में होता रहा है।
हालांकि अब जागरूक होने के कारण कई परिवार के लोग अस्पताल भी जाने लगे हैं। असुर सजातीय विवाह करने वाले हैं, लेकिन इनमें एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है। वहीं इस आदिम जनजाति परिवारों में दहेज प्रथा भी पुराने समय से चली आ रही है।
जानकार बताते है कि दहेज की रकम 5 से 7 रुपये के बीच होती है। असुर पुरुषों का परिवार में ऊंचा स्थान होता है। इनका कोई लिखित रीति-रिवाज या साहित्य नहीं हैं, इसलिए बड़े-बुजुर्ग ही सामाजिक रीति-रिवाजों के संरक्षक माने जाते हैं।
असुरों में विश्वास है कि किसी भी स्त्री-पुरुष को एक निश्चित अवधि के लिए पृथ्वी पर भेजा जाता है और फिर भगवान उन्हें वापस बुला लेते हैं। मृत्यु के बाद असुरों में शव को दफनाने और दाह संस्कार की भी परंपरा है।
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