Thursday, October 23, 2025

मौलिक श्रमण-धर्म और अनीश्वरवादी है जैन धर्म

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सुशोभित

कल भगवान महावीर का जन्म-कल्याणक है। भारत में जो ब्राह्मण-श्रमण द्वैत रहा है, उसकी प्रखर अभिव्यक्ति आज बुद्ध के माध्यम से बहुजन समाज द्वारा बहुत की जाती है, किन्तु महावीर को भुला दिया जाता है। जबकि जैन धर्म मौलिक श्रमण-धर्म है और अनीश्वरवादी है।

आज सनातन के नाम पर भारत में ब्राह्मण-धर्म की विजय-पताका फहरा रही है और धीरे-धीरे फिर से वैसी परिस्थितियाँ निर्मित होने लगी हैं, जैसी कि बुद्ध और महावीर के कालखण्ड में थीं। आडम्बर, कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा और जीवहत्या का बोलबाला फिर से हो रहा है। धर्म में अशुद्धि चली आई है।

ब्राह्मण-धर्म का परिष्कार श्रमण-धर्म से उसके सम्यक् सामंजस्य बिना सम्भव नहीं है और मेरे निजी मत में वेदान्त वह भावभूमि है, जहां पर आकर ब्राह्मण-धर्म की औपनिषदिक-धारा श्रमण-धर्म के आत्म-प्रकाश से जा मिलती है।

जैसे ‘गीता’ में श्रीकृष्ण और ‘धम्मपद’ में बुद्ध की वाणी है, उसी तरह से ‘समण सुत्त’ में भगवान महावीर की वाणी संकलित है।

जैनियों में दिगम्बर सम्प्रदाय ने महावीर-वाणी का संकलन नहीं किया है, श्वेताम्बरों ने किया है। दिगम्बर प्राय: उन वचनों को प्रामाणिक नहीं मानते।

जैन आगमों में जो महावीर-वाणी है, उसे श्रुति-परम्परा से कालान्तर में लिपिबद्ध किया गया था।

जैसे बौद्धों में संगीतियाँ हुई थीं, वैसे ही जैनों में वाचनाएँ हुई थीं, जिनमें आगमों का संकलन हुआ था।

दिगम्बरों ने ‘षटखण्डागम’ को मान्यता दी है, जो कि आगमों पर आचार्य धरसेन के उपदेशों पर आधारित है।

किन्तु ‘समण सुत्त’ का संयोजन अत्यंत अर्वाचीन है। इन्हें वर्ष 1974 में विनोबा की प्रेरणा से क्षुल्लकश्री जैनेंद्र वर्णी ने संकलित किया था।

इसमें जैनागमों के सारतत्व को यों संयोजित किया गया है कि यह जैन-गीता तक कहलाया है।

इसे समस्त जैन पंथों के द्वारा मान्यता दी गई। आचार्य उमास्वामी के ‘तत्वार्थसूत्र’ के बाद कोई दो हज़ार साल में पहली बार ऐसा हुआ था।

‘समण सुत्त’ : यह अर्द्धमागधी भाषा का शब्द है, जो संस्कृत में ‘श्रमण सूत्र’ कहलावेगा। यहाँ श्रमण शब्द ध्यातव्य है।

ब्राह्मण-धर्म का आधार वैदिक परम्परा है। श्रमण-धर्म का मूल जैन धर्म में है। बौद्ध और आजीवक भी श्रमण हैं।

जैनियों ने बौद्धों से पहले अपना श्रमण-आंदोलन आरम्भ कर दिया था। जैनियों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ तो कृष्ण के चचेरे भाई बतलाए हैं।

नेमिनाथ और पार्श्वनाथ (23वें तीर्थंकर) : दोनों में ही जीवदया अत्यंत प्रबल थी, जो महावीर की अहिंसा में शिखर पर पहुँची।

ब्राह्मण संस्कृति से जैनियों का वैसा तीक्ष्ण मनोवैज्ञानिक संघर्ष नहीं रहा है, जैसा बौद्धों से रहा। इसके अनेक कारण हैं।

एक दार्शनिक कारण तो बौद्धों का अनित्य-अनात्म है, जो कि सनातन के मूलाधार पर ही प्रहार करता था।

इसका राजनैतिक कारण बौद्धों को मिला राज्याश्रय था, जिसने उन्हें इतिहास के एक कालखण्ड में भारत में केंद्रीय महत्व का बना दिया था।

अशोक से आम्बेडकर तक बौद्धों को राजनैतिक प्रश्रय मिलता ही रहा है।

आधुनिक दक्षिण-पूर्व एशिया में तो बौद्धों के गणराज्य हैं। शंकर की धर्मध्वजा ने भारत में सनातन की पुन: प्रतिष्ठा की थी। किंतु श्रमणों के बिना भारत कभी पूर्ण नहीं हो सकता है।

डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने बहुत सुंदर बात कही है कि श्रमणों के कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और संन्यास को महत्व मिला।

अहिंसा और जीवदया के मूल्य भी श्रमणों से ही मिले। वैदिक ऋषि और श्रमण मुनि कालान्तर में ऋषि-मुनि का युग्म बनकर एकाकार हो गए थे। वैदिक संस्कृति में चले आए दोषों का संशोधन श्रमणों ने किया था।

इन अर्थों में श्रमण सुधारवादी, प्रगतिशील और संशोधनकारी हैं। रजनीश ने कहा है कि जहाँ वैदिक धर्म अनेकता की ओर प्रसारित होता है- एकोऽहं बहुस्याम्!- वहीं श्रमण धर्म एकत्व की ओर लौटता है, बाहर से भीतर प्रतिक्रमण करता है। यह आरोह और अवरोह की तरह है। आधुनिक काल में गांधी और विनोबा श्रमण-संस्कृति से प्रभावित रहे।

गांधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् राजचंद्र श्रमण परम्परा के ही व्याख्याता और व्यवर्हता थे। गांधी के प्रति नव्य-सनातनियों का जो रोष है, उसके भीतर बहुत गहरे ब्राह्मण-श्रमण द्वैत है। श्रमण परम्परा में श्रम, संयम और शमन का बड़ा महत्त्व है।

अहिंसा, अपरिग्रह, इंद्रिय-निग्रह, देह-दमन, जीवदया और बहुचित्त की एकसूत्रता उसके केंद्रीय विचार हैं।

भारतीय चेतना की अंतर्वस्तु में श्रमण परम्परा भी उतनी ही अनुस्यूत है, जितनी कि ब्राह्मण परम्परा।

इसका संवैधानिक आलम्बन यह है कि हिन्दू कोड बिल के दिशानिर्देशों में सनातनियों और आर्यसमाजियों के साथ ही बौद्धों और जैनियों को भी सम्मिलित किया गया था।

यानी एक व्यापक अर्थ में ब्राह्मण और श्रमण दोनों हिन्दू हैं। नवबौद्धों और दलित-आन्दोलनों के कारण आज भारत में बुद्ध के बहुत नामलेवा हैं, किंतु वृहत्तर भारतीयता के द्वारा भगवान महावीर को और सम्मान से स्मरण करना चाहिए और उनकी देशनाओं पर मनन करना चाहिए।

महावीर का चिंतन अत्यंत सूक्ष्मग्राही और गम्भीर है। जैन परम्परा के पारिभाषिक शब्दों का अपना ही एक लोक है।

समय, धारणा, विचार, अणु, जीव, द्रव्य, चित्त जैसे अनेक शब्दों का हम जो अर्थ निकालते हैं, जैनियों में उनके नितान्त ही भिन्न अर्थ हैं।

समय को आत्मा का पर्याय बतलाकर भगवान महावीर ने एक विचार-क्रांति कर दी थी। इस विलक्षण तीर्थंकर की भारतीय चेतना में सम्यक प्रतिष्ठा हो और भोगवाद से क्लान्त भारत और विश्व में श्रमण धर्म का पुनर्भव हो, इसी कामना के साथ भगवान महावीर की जन्म-जयंती की अग्रिम शुभकामनाएँ सम्प्रेषित करता हूँ।

लेखक : देश के जाने-माने पत्रकार हैं।

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