Monday, October 20, 2025

Ghatsila crop from Nagdi farm: नगड़ी के खेत से घाटशिला की फसल काटने की तैयारी!- आनंद कुमार

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Ghatsila crop from Nagdi farm:

रांची। बात सीधी है, पर कहानी लंबी—नगड़ी का खेत सिर्फ धान का नहीं, राजनीति का भी है. पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसे सिलसिलेवार समझिए, फिर पुराने संदर्भ जोड़िए, तभी तस्वीर साफ़ दिखेगी। क्या चंपाई सोरेन नगड़ी के बहाने “आक्रामक आदिवासी राजनीति” इसलिए खेल रहे हैं कि घाटशिला उपचुनाव से पहले बेटे बाबूलाल सोरेन की पॉलिटिकल री-लॉन्चिंग हो जाए? इशारा कई तरफ़ से मिलता है—नगड़ी के रोपा-पोसो/हल-जोत आंदोलन में कोल्हान (घाटशिला-सरायकेला) से क़ाफ़िलों में समर्थक, बेटे की बढ़ी हुई एक्टिविटी, और उसी समय चंपाई का “मैं हाउस-अरेस्ट हूँ” वाला बयान—जबकि पुलिस ने ऐसी कोई आधिकारिक सूचना सार्वजनिक नहीं की। दूसरी तरफ़ JMM के ही वरिष्ठ नेता—मथुरा महतो और हेमलाल मुर्मू—ने खुलकर कहा कि “आंदोलन फ्लॉप होने के डर से हाउस-अरेस्ट वाली बात फैलाई गई।” यानी कहानी सिर्फ़ जमीन-कानून की नहीं, चुनावी गणित की भी है।

याद कीजिए—चंपाई सोरेन 2024 की शुरुआत में तब CM बने जब हेमंत सोरेन जेल में थे; 2 फ़रवरी 2024 को उन्होंने शपथ ली और बाद में कुर्सी वापस हेमंत को मिल गई। उसके बाद अगस्त 2024 में चंपाई BJP में चले गए—यहीं से उनकी “आक्रामक विपक्षी” शैली का नया अध्याय शुरू हुआ।

नगड़ी का विवाद कोई आज का नहीं। 1957 के अधिग्रहण को आधार मानकर 2011–12 में सरकार ने IIM, लॉ यूनिवर्सिटी और सेंट्रल यूनिवर्सिटी जैसी संस्थाओं के लिए ज़मीन चिन्हित की, तो स्थानीय ग्रामीण—ज़्यादातर आदिवासी—उठ खड़े हुए। हाईकोर्ट/प्रशासनिक आदेशों के बीच कई दौर में सड़क-जाम, धरना, और टकराव हुए; सरकार ने “शिक्षा-हब” की दलील दी, गांव ने “पुरखों की जमीन” की।

उस समय भी “कौन हमारे साथ—कौन हमारे खिलाफ” वाली राजनीति खूब खेली गई। आज वही इलाका RIMS-2 के नाम से फिर खबरों में है—जिला प्रशासन ने निषेधाज्ञा लागू की, वॉटर कैनन/रबर बुलेट स्टैंड-बाय पर रखे, और विरोध के बावजूद खेत-रोपनी भी हुई—मतलब, सरकार ने सिग्नल दिया कि “कानून-व्यवस्था हाथ में नहीं लेने देंगे, मगर पूरी ताक़त से कुचलना भी मकसद नहीं।”

(RIMS-2 को लेकर हाल की खबरों में साइट-रेडीनेस और सरकारी तैयारी लगातार रिपोर्ट हुई हैं।) नगड़ी मूलतः स्थानीय किसानों का मसला है—जमीन, मुआवजा, प्रक्रिया और समुदाय-सम्मति। जब कोई बाहरी बड़ा नेता अचानक फ्रंटफ़ुट लेता है, आंदोलन का नैरेटिव बदलता है। यही यहाँ हुआ—चंपाई-कैंप से काफ़िले, ड्रम-बीटिंग और हल-जोत अनाउंसमेंट ने फोकस को “लोकल लैंड” से “रीजनल लीडरशिप” की तरफ़ धकेला।

विपक्ष के बड़े चेहरे (जैसे बाबूलाल मरांडी) ने भी कहा—“ये नगड़ी के लोगों का सामाजिक आंदोलन है”—यानि आधिकारिक रूप से BJP ने इसे पार्टी-आंदोलन कहने से परहेज़ रखा; सपोर्ट नैतिक/मुद्दावार बताया। (यह लाइन इसलिए अहम है क्योंकि अगर आंदोलन पर किसी पार्टी की मुहर पड़ती है, तो प्रशासन का रुख़ सख़्त होता है और स्थानीय सहानुभूति भी ध्रुवीकृत होती है।) जिस दिन हल चलाने/रोपा-पोसो की घोषणा थी, चंपाई ने सोशल मीडिया पर कहा—“मुझे हाउस-अरेस्ट कर दिया गया।” पुलिस का लिखित/औपचारिक बयान सामने न आने से यह बात राजनीतिक विमर्श बन गई।

इसके उलट JMM के वरिष्ठों ने कहा—“चंपाई को डर था भीड़ नहीं आएगी, इसलिए पहले से नैरेटिव सेट कर दिया।” अब सवाल उठता है—अगर आंदोलन पूरी तरह स्थानीय है, तो कोल्हान (घाटशिला-सरायकेला) से गाड़ियाँ भर-भरकर क्यों? और यदि “मैं खुद हल चलाऊँगा” कहा था, तो खुद पहुँचे क्यों नहीं? वहीं, स्थानीय सरना/ग्राम-संगठनों की अगुवाई में कई लोग खेत तक पहुँचे, प्रतीकात्मक हल-रोपनी हुई—पुलिस ने गैस-शेल दागे पर टोटल क्लैम्पडाउन नहीं किया; संकेत यही कि सरकार टकराव-हैजैक से बचाना चाहती थी, टोटल बैन नहीं।

(RIMS-2 कवरेज में ये दोनों बातें—कंट्रोल और कंटेनमेंट—एक साथ दिखीं।) ये सब ऐसे समय में हो रहा है जब मंत्री रहे रामदास सोरेन के निधन के बाद घाटशिला से उपचुनाव तय है। पिछली बार बाबूलाल (बेटे) वहां से हार चुके हैं; ऐसे में कोल्हान की जमीन पर “आदिवासी हक़” की आक्रामक ब्रांडिंग करके कम से कम दो फायदे सोचे जा सकते हैं—(1) व्यक्तिगत सहानुभूति/मोबिलाइजेशन, (2) टिकट-कन्फर्मेशन और “कैंडिडेट ऑरा”।

ये पॉलिटिक्स-101 है—स्थानीय भावना को अपने इलाके तक ट्रांसफ़र करना। सवाल इसलिए उठता है कि नगड़ी, रांची के पश्चिम-दक्षिण की पट्टी का सामाजिक-सांस्कृतिक मैदान है; कोल्हान (पूर्व सिंहभूम-सरायकेला) अलग भूगोल/समाज है—तो फिर इतने बड़े काफ़िले उधर से इधर क्यों? घाटशिला का नाम आते ही पुराने खिलाड़ी याद आते हैं—सूर्य सिंह बेसरा। 1990 में यही से विधायक बने; झारखंड राज्यhood की जंग में फायरब्रांड चेहरा; AJSU के संस्थापकों में गिने जाते हैं। 1991 में जब अलग राज्य पर टकराव चरम पर था, उन्होंने बड़ा‐छोटा कई दांव खेला।

लेकिन इस्तीफे के बाद दोबारा कभी चुनाव नहीं जीत सके। बेसरा के हालिया बयानों से लगता है कि उनका फायर खत्म हो चुका है और अब वे जेएमएम की बगिया के फ्लावर बनने को आतुर हैं। नगड़ी में हल चले, रोपा रोपा जाए—यह दृश्य जितना सुहावना है, राजनीति उतनी ही पेचीदा। अगर यह सच में “जमीन-हक़” का संघर्ष है, तो उसकी कमान नगड़ी के लोगों के हाथ में रहे।

अगर यह “घाटशिला 2.0” की चुनावी लांचिंग है, तो जनता इसे पहचान भी रही है, रिकॉर्ड भी कर रही है। आख़िरी बात—नेता बदलते हैं, पद बदलते हैं; पर गांव की जमीन, उसके रेकॉर्ड और उसके अधिकार नहीं बदलने चाहिएं। जो भी इन्हें दस्तावेज़, संवाद और सम्मान से सुलझाएगा, वही कल की राजनीति काटेगा—वरना आज के वीडियो क्लिप्स होंगे, और कल के उपचुनाव में फिर वही पुराना सवाल: खेत किसका…और फसल किसकी?

नोटः लेखक वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दुस्तान के पूर्व संपादक हैं..

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