नई दिल्ली, एजेंसियां। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने के लिए एक याचिका दायर की गई है। इस याचिका में चार मुंबई-based वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि जज के घर से बड़ी मात्रा में नकद मिलने के मामले को गंभीर आपराधिक मामला माना जाए और इसकी जांच पुलिस या अन्य एजेंसियों द्वारा की जाए।
इन वकीलों का कहना है कि 14 मार्च को जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में जली हुई नकदी मिलने के बाद तुरंत एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए थी, लेकिन इसे जजों की एक जांच कमेटी को सौंप दिया गया है, जो सही नहीं है।
याचिकाकर्ताओं ने उठाए ये सवाल
याचिकाकर्ताओं में वकील मैथ्यूज नेदुंपरा, हेमाली कुर्ने, राजेश आद्रेकर और मनीषा मेहता शामिल हैं। इन वकीलों ने अपनी याचिका में 1991 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का विरोध किया है, जिसमें यह कहा गया था कि उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से पहले चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) की सहमति आवश्यक होती है।
याचिकाकर्ताओं ने इस फैसले को संविधान से गलत बताते हुए कहा कि संविधान में सिर्फ राष्ट्रपति और राज्यपालों को मुकदमे से छूट दी गई है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने जजों को आम नागरिकों से अलग विशेष दर्जा दे दिया है।
याचिका में क्या कहा गया है?
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से जली हुई नकदी मिलने के तुरंत बाद एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए थी। लेकिन अब मामला जजों की एक जांच कमेटी के पास है, जो कि उचित नहीं है। उनका कहना है कि जैसे आम नागरिकों के खिलाफ आपराधिक मामलों में एफआईआर दर्ज होती है, उसी तरह इस मामले में भी एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए और जांच के लिए पुलिस और अन्य एजेंसियों को मामला सौंपा जाना चाहिए।
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से यह भी मांग की है कि 1991 के वीरास्वामी फैसले में की गई टिप्पणी को निरस्त किया जाए और जांच एजेंसियों को जांच के लिए निर्देशित किया जाए।
जजों को दी गई छूट पर उठाए सवाल
याचिकाकर्ताओं ने यह भी आरोप लगाया कि जजों को अलग दर्जा दिए जाने के कारण कई मौकों पर गंभीर मामलों में भी वे एफआईआर से बच गए हैं। इस संदर्भ में उन्होंने पोक्सो (POCSO) जैसे गंभीर मामलों का उदाहरण भी दिया, जहां जजों को एफआईआर से बचने का मौका मिला है।
ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड्स एंड अकाउंटेबिलिटी बिल का संदर्भ
याचिकाकर्ताओं ने संसद में 2010 में लाए गए “ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड्स एंड अकाउंटेबिलिटी बिल” का भी उल्लेख किया, जो जजों के भ्रष्टाचार और गलत आचरण की जांच के लिए था, लेकिन वह कानून नहीं बन सका। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि जजों की पारदर्शिता और जिम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिए संसद ने इस बिल को पेश किया था, लेकिन वह कानून की शक्ल नहीं ले सका।
क्या है मामला?
14 मार्च 2025 को, जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में जली हुई नकदी मिलने की खबर आई थी। इसके बाद कई मीडिया रिपोर्ट्स में इस घटना को गंभीर भ्रष्टाचार और आपराधिक मामले के रूप में उठाया गया था। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस मामले में एफआईआर की प्रक्रिया और जांच में सुस्ती और संकोच दिखाया गया, जो किसी भी सामान्य नागरिक के मामले में नहीं होती।
क्यों जरूरी है एफआईआर?
याचिकाकर्ताओं का यह भी कहना है कि जजों को विशेष दर्जा देने के बजाय, उन्हें कानून के सामने समान रूप से जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह समय है जब सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले की समीक्षा करनी चाहिए और जजों के खिलाफ एफआईआर की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक इस याचिका पर कोई निर्णायक फैसला नहीं लिया है, लेकिन इस मामले में कानूनी और संविधानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं। यह देखना बाकी है कि सुप्रीम कोर्ट इस याचिका पर क्या कदम उठाता है और क्या वह 1991 के फैसले में किए गए संशोधन के बारे में विचार करेगा या नहीं।
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