होली एक ऐसा त्योहार है जो हिन्दू कैलेंडर के अनुसार पहला पर्व है। इस पर्व को लेकर देशभर में जोरों से तैयारियां हो रही हैं। बाजारों में तरह तरह के रंग – गुलाल , पिचकारी से सजे हैं । खेतों में हरियाली। मन में उल्लास। गांव से लेकर शहर तक लोगों के उत्साह चरम पर है। होली न केवल रंग और गुलाल का त्योहार बल्कि स्वादिष्ट पकवानों का भी त्यौहार है। शहरों मे जगह – जगह पर डीजे की मस्ती शुरु हो गई ही, लेकिन गांवो मे तो अभी भी ढोल-मजीरे की थाप के साथ गीत गाए जाते हैं। इस साल होली 15 मार्च को है, लेकिन हर जगह के कॉलेज, दफ्तर में शुरू हो चुकी है। एक बात तो है होली फगुआ के गीतों के बगैर अधूरी है।
जी हां फगुआ,आईये जानते फगुआ के बारे में क्या, कैसे और कहां मनाई जाती है?
फगुआ का मतलब क्या होता है?
फगुआ का मतलब फागुन से है। होली के दिन की परम्परा यह है कि सुबह सुबह धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाता है, फिर शाम को अबीर लगाकर हर दरवाजे पर घूमके फगुआ गया जाता है। यही तो फगुआ है, जिसे फाग भी कहा जाता है।
फगुआ गीतों की बात करे तो गाने में गांव समाज का प्रेम अपने इष्ट का गायन, देवर भाभी की मजाक वाले गीत, कीचड़ से खेली जाने वाली होली सब कुछ होता है। उसमें गुलाल का उस रूप में उड़ना जो पूर्वी भारत में लवंडा नाच के तौर पर होली को चार चांद लगाता है।
फगुआ कहां मनाई जाती है?
यदि आप बिहार, उत्तर प्रदेश के गांवों से यह ‘फगुआ’ शब्द से जरूर वाकिफ होंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण अंचलों में आज भी होली का असली मजा फगुआ गाने के साथ ही आता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में वसंत पंचमी के बाद से ही होली के गीत गाए जाने लगते हैं और यह सिलसिला होली तक जारी रहता है।
फगुआ की शुरुवात
ऐसा कहा जाता है इस विधा को शुरू भिखारी ठाकुर ने किया। भिखारी ठाकुर का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है, खास कर बिहार और भोजपुरी समाज में। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाई थी।
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। उनके पिता अपनी जातिगत व्यवस्था के आधार पर बंटे कार्य करते थे। लोगों की हजामत बनाना।
पूजा-पाठ, शादी-ब्याह और जन्म-मृत्यु के अवसरों पर होने वाले कार्यक्रमों से भी उनकी गृहस्थी चलती थी। भिखारी ठाकुर 9 वर्ष की उम्र में पहली बार स्कूल गए। पर अगले 1 वर्ष तक वो वर्णमाला के एक अक्षर भी नहीं सीख पाए। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो विधिवत शिक्षा को त्याग कर गाय चराने के कार्य में लग गए। उम्र बढ़ी तो खानदानी पेशा शुरू कर दिया, यानी कि लोगों के हजामत बनाने लगे। चूंकि अब भिखारी ठाकुर हजामत बनाना सिख चुके थे, तो उन्होंने सोचा कि क्यों न किसी शहर में जाकर अच्छी कमाई की जाए. फिर वो पहले खड़गपुर और बाद में मेदिनीपुर गए।
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वहां उन्होंने रामलीला देखा और उनके भीतर का कलाकार धीरे-धीरे उन पर हावी होना शुरू हो गया। हाथ से उस्तरे छूटते गए और मुंह से कविताओं का प्रवाह फूटना शुरू हो गया। वापस गांव आए और गांव में ही रामलीला का मंचन करना शुरू कर दिया। लोगों ने उनकी रामलीला की काफी सराहना भी की। अब भिखारी ठाकुर को ये समझ आ गया कि इसी क्षेत्र में उनका भविष्य है। इस बीच घरवालों के विरोध और अपनी उम्मीदों के बीच जूझते हुए सिंगार ठाकुर का बेटा धीरे-धीरे बिहारी ठाकुर के नाम से जाना जाने लगा।
उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में बिदेसिया, भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबरघिचोर, गंगा असनान, बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार आदि शामिल हैं। भिखारी ठाकुर का कथा संसार किसी किताबी विमर्श के आधार पर कल्पनालोक के चित्रण पर आधारित नहीं था।
किताबी ज्ञान के नाम पर भिखारी ठाकुर बिल्कुल भिखारी रह गए थे। वही से बिहारी ठाकुर से वे भिखारी ठाकुर बने। एक वक्त था जब ठाकुर के गाने के जोगीरा सारारारा… जोगी जी धीरे धीरे… के बगैर गांव में होली नहीं मनती थी लेकिन अब दौर बदल गया है लोगों को आधुनिक चीजें लुभाने लगी। खान पान से शुरू करके गान नांच में काफी बदलाव आ गया है। फगुआ और भिखारी ठाकुर के गाने अभी सिर्फ गांव तक सिमट कर रह गए है।
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