जातिगत जनगणना, जिसे जातिगत सर्वे भी कहा जाता है, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जनगणना के दौरान लोगों से उनकी जाति के बारे में जानकारी ली जाती है। इसका उद्देश्य देश की विभिन्न जातियों की संख्या का सही आंकड़ा जमा करना और उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर की स्थिति का मूल्यांकन करना है। जिससे सरकार को विभिन्न वर्गों के बीच असमानताओं को समझने में मदद मिलती है।
जातिगत जनगणना का इतिहास
भारत में जनगणना की प्रक्रिया का इतिहास 1871 में शुरू हुआ था, लेकिन जातिगत जनगणना ब्रिटिश शासन के दौरान 1931 में हुई थी। इसके बाद 1941 में भी जातिगत जनगणना की गई, लेकिन इसके आंकड़े कभी प्रकाशित नहीं किए गए। 1951 के बाद, जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो इस जनगणना में केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती की गई, और बाकी जातियों के आंकड़े इकट्ठा नहीं किए गए। इसके बाद, हर दस साल में होने वाली जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल नहीं किए गए, जिसके कारण विभिन्न जातियों की सटीक संख्या और स्थिति का पता नहीं चल पाया।
जातिगत जनगणना के लाभ
जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि इससे कई फायदे मिल सकते हैं:
सटीक आंकड़े मिलना:
जातिगत जनगणना से सरकार को सही आंकड़े मिलते हैं, जिससे यह समझने में मदद मिलती है कि कौन सी जातियाँ सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं और उनके लिए किस प्रकार की योजनाएं बनाई जानी चाहिए।
विकास योजनाओं का सही निर्धारण:
जब सरकार को यह पता चलता है कि कौन सी जातियां आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई हैं, तो सरकार उन जातियों तक विशेष विकास योजनाओं और सहायता पहुंचा सकती है। यह राज्य और केंद्र सरकारों को विकास कार्यों के लिए सही दिशा में नीतियाँ बनाने में मदद करता है।
समाज में असमानताएं कम करना:
जातिगत जनगणना से यह भी मदद मिलती है कि उन जातियों को पहचानने में सहायता मिलती है जो अब तक विकास से वंचित रही हैं, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है।
आरक्षण नीति में सुधार:
जातिगत जनगणना के आंकड़े आरक्षण की नीति को ठीक से लागू करने में मदद कर सकते हैं। इससे यह सुनिश्चित हो सकता है कि आरक्षण का लाभ सही लोगों तक पहुंचे और इसका दुरुपयोग न हो।
जातिगत जनगणना के विरोध में तर्क
जातिगत जनगणना के विरोधियों का कहना है कि यह समाज में जातिवाद को बढ़ावा दे सकता है। उनका मानना है कि जातियों की गिनती करने से जातिवाद को और बल मिलेगा और इससे समाज में असंतोष फैल सकता है।
जातिवाद को बढ़ावा मिल सकता है:
जातिगत जनगणना से समाज में जातिवाद की भावना बढ़ सकती है, जिससे समाज में असमानताएं और अधिक गहरी हो सकती हैं। राजनीतिक दल जातियों के आधार पर वोट बैंक की राजनीति कर सकते हैं, जिससे समाज में एकता और भाईचारे की भावना कमजोर हो सकती है।
सामाजिक असंतोष:
जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद, जिन जातियों की संख्या कम होगी, वे अपने अधिकारों की मांग कर सकती हैं, और जिनकी संख्या अधिक होगी, वे अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने की कोशिश कर सकते हैं। इससे राजनीतिक असंतोष और तनाव उत्पन्न हो सकता है।
परिवार नियोजन पर प्रभाव:
जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर कुछ जातियां अपनी संख्या बढ़ाने की कोशिश कर सकती हैं, जिससे परिवार नियोजन कार्यक्रम को नुकसान हो सकता है। इससे जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशों में भी रुकावट आ सकती है।
बिहार में जातिगत जनगणना
हाल ही में, बिहार में जातिगत जनगणना को लेकर राजनीतिक विवाद गहरा गया है। बिहार सरकार ने 2023 में जातिगत जनगणना का काम शुरू किया। 7 जनवरी 2023 से इस जनगणना की शुरुआत हुई थी, जिसमें दो चरणों में काम पूरा करने का लक्ष्य था। पहले चरण में 21 जनवरी तक 5.18 लाख सरकारी कर्मचारियों द्वारा 2.58 करोड़ परिवारों की गिनती की गई। दूसरे चरण में, जो 1 से 30 अप्रैल तक हुआ, जाति और आर्थिक जनगणना के आंकड़े इकट्ठा किए गए। इस जनगणना का उद्देश्य यह पता लगाना था कि राज्य में कितनी जातियां हैं और उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर क्या है।
केंद्र सरकार का रुख
केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए मना किया है, और इसका विरोध किया है। मोदी सरकार ने साफ तौर पर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी। इसके बावजूद, बिहार सरकार ने अपने राज्य में जातिगत जनगणना को लागू करने का निर्णय लिया है। यह राज्य में विशेष रूप से राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है, क्योंकि इससे राज्य की राजनीति में बदलाव हो सकता है।
जातिगत जनगणना एक अहम और संवेदनशील मुद्दा है, जिसका उद्देश्य समाज में जातिगत असमानताओं को समझना और उन्हें सुधारने के लिए सही योजनाएं बनाना है। इसके समर्थक मानते हैं कि यह सामाजिक और आर्थिक समानता बढ़ाने में मदद करेगा, जबकि विरोधी इसे जातिवाद को बढ़ावा देने और समाज में मतभेद पैदा करने का कारण मानते हैं। इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं, और इसका असर इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे किस तरह से लागू किया जाता है और सरकार और समाज की नीति क्या होती है।
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