नई दिल्ली : राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के ओजस्वी और क्रांतिकारी लेखन से ब्रिटिश सरकार ने चार साल में 22 दफा उनका ट्रांसफर करवाया था। वर्ष 1934 में दिनकर अंग्रेज़ सरकार में सब-रजिस्ट्रार बहाल हुए थे, लेकिन वह अपनी कविताओं में अंग्रेजी सरकार को ललकारते रहे। उनकी रचनाओं से अंग्रेज़ों को लगा कि दिनकर का राष्ट्रवाद सरकार के खिलाफ है। ऐसे में उन्हें परेशान करने की कोशिशें हुई और चार साल में उनका 22 बार ट्रांसफर किया गया। पर अंग्रेजों की परेशान करो की नीति से रामधारी सिंह दिनकर जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने अपना लेखन जारी रहा।
यही नहीं जब देश आजाद हो गया तब भी उन्होंने अपनी लेखनी से जनता को उद्वेलित करना जारी रखा। 25 जून, 1975 को जब दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ सम्पूर्ण क्रांति का ऐलान किया। तो ये दिनकर ही थे जिन्होंने लाखों की भीड़ के सामने प्रधानमंत्री को ललकारते हुए कहा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। उनके इस एक वाक्य ने पूरे राष्ट्र को ऐसा उद्वेलित किया कि सत्ता की नींव हिल गई। घबराई इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लागू कर दी थी।
एक बार लाल किले पर कवि सम्मेलन का आयोजन था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू मुख्य अतिथि की हैसियत से पहुंचे थे और भारत के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर भी कविता पाठ के लिए आए हुए थे। मंच पूरी तरह तैयार था। पंडित नेहरू और दिनकर मंच की सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे। इसी बीच अचानक पीएम नेहरू का पांव डगमगा गया और दिनकर ने उनका हांथ पकड़कर उन्हें संभाल लिया। नेहरू ने दिनकर से कहा – धन्यवाद दिनकर जी आपने मुझे संभाल लिया। इसके जवाब में दिनकर ने जो कहा, उसने उन्हें लाजवाब कर दिया।
रामधारी सिंह दिनकर ने कहा कि इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है नेहरू जी…राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है। रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वो बेबाक टिप्पणी से कतराते नहीं थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रामधारी सिंह दिनकर को राज्यसभा के लिए नामित किया था, लेकिन बिना लाग-लपेट के उन्होंने देशहित में नेहरू सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई। 1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने कविता पढ़ी, जिससे पूरा संसद सन्न हो गया था। ये पंक्तियां इस तरह थीं- “रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर”
हरिवंश राय बच्चन ने दिनकर के लिए कहा था, “दिनकरजी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि- यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका उचित सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिंदी प्रचार के लिए।