रांची। झारखंड में एक बार फिर 1932 का खतियान चर्चा में है। हालांकि राज्यपाल रमेश वैस हेमंत सरकार द्वारा भेजे गये 1932 का खतियान पर आधारित स्थानीय नीति का विधेयक लौटाकर खुद भी लौट चुके हैं, लेकिन यह मुद्दा अब भी जीवंत है।
दरअसल, झारखंड गठन के बाद से ही 1932 के खतियान चर्चा में है। 2002 में जब बाबूलाल मरांडी की सरकार ने डोमिसालइल नीत लागू किया, तबसे ही 1932 का खतियान चर्चा में आया। इसका भारी विरोध भी हुआ। फिर बाद में झारखंड हाइकोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया।
इसके बाद की सरकारें इसे विवादास्पद मानकर इससे बचती रहीं। लेकिन वर्ष 2013 में अपने पहले मुख्यमंत्री काल में हेमंत सोरेन ने स्थानीय नीति पर सुझाव देने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की पर तब यह नीति नहीं बन सकी। झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन भी 1932 के खतियान को आधार मानकर स्थानीय नीति बनाए जाने की वकालत करते रहे हैं।
क्यों है विरोध, क्या है विवाद
1932 के खतियान लागू होने का मतलब है, कि उस समय के लोगों का नाम ही खतियान में होगा। यानि 1932 में झारखंडवासियों के वंशज ही झारखंड के मूल निवासी माने जायेंगे। पिछले वर्ष हेमंत सोरेन सरकार ने तो खतियान आधारित स्थानीय नीति को नियोजन से जोड़ दिया था, जिसे बाद में झारखंड हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया।
यदि यह सागू हो जाता, तो राज्य में 1932 या उसके पूर्व की खतियानी पहचान वाले झारखंडियों को ही तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरी मिल पाती। पिछले वर्ष 11 नवंबर को विधानसभा के विशेष सत्र में सरकार ने झारखंड के स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा तय करने वाला विधेयक पारित किया। सामान्य प्रक्रिया के तहत यह विधेयक राज्यपाल के पास भेजा गया, जिसे पूर्व रमेश वैस ने कई आपत्तियों के साथ वापस कर दिया।
क्या होता है खतियान और क्यों खास है 1932 का खतियान
अब यहां यह जानना जरूरी हो जाता है क क्या है 1932 का खतियान? आम तौर खतियान वह दस्तावेज होता है, जमीन के मूल मालिक का नाम दर्ज होता है। खतियान को रिकॅाड ऑफ द् राइट भी कहते हैं। यह जमीन के मूल मालिक का पता बताता है। इसमें यह भी दर्ज होता है कि जमीन के अस्तित्न में आने के बाद से इसे मूल मालिक ने कब कब किसे हस्तांतरित की या बेची।
कुल मिला कर कहा जाये, तो इसमें जमीन का पूरा विवरण मौजूद होता है, जसमें खरीद-बिक्री से जुड़ी जानकारी भी शामिल होती है। आज भी झारखंड में खतियान यहां के भूमि अधिकारों का मूल मंत्र या संविधान है। 1932 के सर्वे में जिसका नाम खतियान में चढ़ा हुआ है, उसके नाम का ही खतियान आज भी है।
रैयतों के पास जमीन के सारे कागजात हैं, लेकिन खतियान दूसरे का ही रह जाता है। बिरसा मुंडा के आंदोलन के बाद 1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बनाया गया। इसका उद्देश्य आदिवासियों की जमीन को गैर आदिवासियों के हाथों में जाने से रोकना था। 1831-1832 के कोल विद्रोह के बाद विल्किंसन एक्ट आया।
कोल्हान की भूमि ‘हो’ आदिवासियों के लिए सुरक्षित कर दी गई। यह व्यवस्था निर्धारित की गई कि कोल्हान का प्रशासनिक कामकाज हो मुंडा और मानकी के द्वारा कोल्हान के अधीक्षक करेंगे। इस इलाके में साल 1913-1918 के बीच भूमि सर्वेक्षण हुआ। इसके बाद मुंडा और मानकी को खेवट में विशेष स्थान मिला।
आदिवासियों का जंगल पर अधिकार इसी सर्वे के बाद दिया गया। 1950 में बिहार में भूमि सुधार अधिनियम आया। फिर वर्ष 1954 में इसमें संशोधन किया गया और मुंडारी खूंटकट्टीदारी को इसमें छूट मिल गई।