सरना धर्म का इतिहास
सरना धर्म
सरना धर्म का इतिहास बहुत पुराना है। कितना पुराना यह स्पष्ट और व्याख्यायित नहीं है। सरना धर्म गुरू बंधन तिग्गा कहते हैं कि पृथ्वी की संरचना के समय से अगर कोई सबसे पुराना धर्म है तो वो सरना धर्म है।
हमारे धर्म में कोई ऊंच नीच नहीं, कोई छोटा बड़ा नहीं और पुरुष और महिलाओं के बीच भेद भाव नहीं होता।
सरना धर्म मानने वाले लोग करते है पृथ्वी,पेड़ों ,पर्वत की पूजा
बाकी धर्म वेद-पुराण, कुरान, बाइबल जैसी किताबों से चलते हैं। हमारा धर्म प्रकृति से चलता है। सरना धर्म मानने वाले लोग पृथ्वी की, पेड़ों की, पर्वत की पूजा करते हैं।
लेकिन जैसे मंदिर में मंदिर की नहीं किसी भगवान की पूजा होती है, मस्जिद में अल्ला से दुआ मांगी जाती है, ठीक वैसे ही जब हम पृथ्वी, पेड़ या पर्वत की पूजा करते हैं तो हम उस अलौकिक शक्ति की पूजा करते हैं।
खुद को सरना धर्म से जुड़ा हुआ मानने वाले लोग तीन तरह की पूजा करते हैं। पहले धर्मेश की पूजा। दूसरी सरना मां की पूजा. और तीसरा जंगल की पूजा।
इन तीनों को पूजने का एक लॉजिक बताया जाता है। कहते हैं जैसे हिंदू धर्म में पूर्वजों की पूजा की जाती है, माता-पिता की पूजा की जाती है वैसे ही धर्मेश यानी पिता और सरना यानी मां की पूजा की जाती है।
तीसरी पूजा जंगल की होती है जिसे प्रकृति के तौर पर भी पूजा जाता है और इसलिए भी क्योंकि जंगल से खाना-पीना भी मिलता है।
इससे साफ है कि सरना धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म है और जबसे प्रकृति अस्तित्व में आयी, मनुष्य अस्तित्व में आया, तभी से सरना धर्म का अस्तित्व है।
सरना धर्म का प्रचलन
प्रकृति पूजा पर आधारित सरना धर्म का प्रचलन कई भारतीय राज्यों जैसे झारखंड, ओडिशा, असम, बिहार और पश्चिम बंगाल के आदिवासियों में है।
इसे आदि धर्म के नाम से भी जाना जाता है। इस धर्म के अनुयायियों की मुख्य आस्था जल, जंगल व ज़मीन में होती है।
ये लोग वन क्षेत्रों की रक्षा में विश्वास करते हुए पेड़ों और पहाड़ियों से प्रार्थना करते हैं। इसके अनुयायियों ने केंद्र सरकार से सरना को धर्म के रूप में मान्यता प्रदान करने तथा अलग सरना धार्मिक संहिता की मांग की है।
इनकी मांग है कि आगामी जनगणना में उनकी गणना इसी श्रेणी के तहत की जाए। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार वे लोग जिन्होंने ‘अन्य’ स्तम्भ के तहत सरना या सारार्थी के रूप में स्वयं को चिह्नित किया था, उनकी संख्या लगभग 50 लाख थी।
यह संख्या जैन धर्म के दर्ज अनुयायियों से अधिक है। अपनी भाषा और इतिहास की सुरक्षा आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण पहलू है।
1871 से 1941 तक आदिवासियों को भारत की जनगणना में अलग पहचान के साथ दर्ज किया गया. लेकिन उसके बाद आज़ाद भारत में यह प्रक्रिया भी बंद कर दी गई. तो एक तरह से देश की आज़ादी के साथ ही आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
आदिवासी संस्कृति पर हिंदू धर्म को ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है
शायद यह कहना ठीक होगा कि इसको जानबूझ कर नकार दिया गया। भारत के कई राज्यों में आदिवासियों का धर्म परिवर्तन हुआ और उन्हें इसाई बना दिया गया।
लेकिन हिंदू धर्म को जिस तरह से आदिवासी संस्कृति पर ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है, हर आदिवासी को जबरदस्ती हिंदू के तौर पर गिना जा रहा है, वह ख़तरनाक़ है।
जिस तरह से लगातार हमारी मान्यताओं और रीति रिवाज़ों पर मज़बूत और ताक़तवर लोगों की धार्मिक पध्दतियां लादी जा रही हैं, उससे आदिवासी अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा हो रहा है।
सरना धर्म के पक्ष में फ़िलहाल झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार और असम के ज़्यादतर आदिवासी समूह एक साथ खड़े हैं।
अब सवाल ये है कि क्या भारत के सभी आदिवासी समूहों में उनकी आस्थाओं और मान्यताओं में एकरूपता देखी जा सकती है या बनाई जा सकती है।
इसका जवाब है नहीं। शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं है। आदिवासियों में पूर्वोत्तर राज्यों में दोनी पोलो धर्म की मांग उतनी ही जायज़ है जितनी सरना धर्म की।
उसी तरह से गोंडी समुदाय या भील अपने अपने समुदायों के लिए अलग धर्म की मांग करते हैं तो इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है।
जैसे 44 लाख की आबादी पर जैन धर्म को अलग पहचान के साथ दर्ज किया जाता है, वैसे ही सरना धर्म में इन धर्मों के लिए अलग से कोड बन सकता है।
खुद का धर्म सरना
भारत की 2011 की जनगणना में पूरे देश में 40,75,246 लोगों ने अपना धर्म सरना दर्ज कराया था।
इसमें सर्वाधिक झारखंड में 34,50,523, ओडिशा में 3,53,520, पश्चिम बंगाल में 2,24,704, बिहार में 43,342, छत्तीसगढ़ में 2450 और मध्य प्रदेश में 50 लोगों ने खुद का धर्म सरना बताया था।
देश में आदिवासियों की आबादी झारखंड से राजस्थान और अंडमान से अरुणाचल तक है।
झारखंड और इसके पड़ोसी राज्यों में मौजूद जनजातीय समुदाय के लोग खुद को सरना धर्म से जुड़ा बताते हैं, लेकिन बहुतायत राज्यों के आदिवासी अलग-अलग मान्यताओं से जुड़े हैं। प्रख्यात शिक्षाविद और विचारक स्वर्गीय रामदयाल मुंडा आदि धर्म की वकालत करते थे।
झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय के लोग निवास करते हैं, जिसमें संताल, मुंडा, खड़िया, गोंड, कनबार, उऱांव, खड़िया, कोल, सावर, असुर, बैगा, बंजारा, बथूड़ी, बेदिया, बिंझिया, बिरहोर, बिरजिया, चेरो, चिक बड़ाईक, गोराइत, हो, करमाली, खरवार, खोंड, किसान, कोरा, कोरबा, लोहरा, महली, माल पहाड़िया, पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया और भूमिज शामिल हैं।
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