विवेकानंद कुशवाहा
हाल ही में बिहार में 27 ऐसे लोगों को रिहा करने का नोटिफिकेशन जारी हुआ है, जो उम्रकैद की सजा काट रहे थे। सभी 14 वर्ष से ज्यादा समय जेल में बिता चुके हैं। बॉलीवुड की फिल्मों में भी आपने देखा होगा कि उम्रकैद की सजा काट रहे हीरो/विलेन को उसका जेल रिकॉर्ड देख कर 14 वर्ष में रिहा कर दिया जाता है, लेकिन बिहार में हुई रिहाई पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? दरअसल, इन सारे सजायाफ्ता अपराधियों में से एक नाम खास है, क्योंकि वह अपराधी होने के साथ-साथ सांसद भी रह चुके हैं। उन पर एक ऑन ड्यूटी जिलाधिकारी की हत्या का आरोप सिद्ध हुआ था। जिलाधिकारी अनुसूचित जाति वर्ग से आते थे। यह हत्या उस दौर में हुई थी, जब बिहार में वर्ग संघर्ष के आग की लपटें काफी तेज थीं। रिपोर्ट जो बताते हैं, उसके मुताबिक, उस अधिकारी को सिर्फ मारा नहीं गया था, बल्कि बेरहमी से मार कर पत्थर से चेहरा कूच दिया गया था।
2007 में निचली अदालत ने हत्यारोपी को दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई। हाई कोर्ट ने उसको उम्रकैद में बदल दिया और जिसे 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने कंटिन्यू रखने का आदेश दिया था। उम्रकैद की सजा को लेकर भी हम सभी लोगों में बहुत सी भ्रांतियां हैं। आमतौर पर लोगों को लगता है कि आजीवन कारावास 14 वर्ष या 20 वर्ष का होता है। असल में आजीवन कारावास का मतलब है कि सजा पाने वाला व्यक्ति अपने बचे हुए जीवनकाल तक जेल में रहेगा।
फिर कोई 14 या 20 साल में बाहर कैसे आ जाता है? यहां पर राज्य की सरकारें एक निश्चित मापदंड के आधार पर किसी व्यक्ति की सजा कम करने की शक्ति रखती है। भारतीय दंड संहिता (इंडियन पेनल कोड) की धारा 55 और 57 में सरकारों को सजा को कम करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन उम्रकैद में 14 वर्ष से कम की सजा किसी भी सूरत में नहीं हो सकती। बिहार में 2012 में स्वीकार किये गये रिमिशन पॉलिसी-1984 के तहत बने जेल नियमों के अनुसार, 10 अप्रैल, 2023 से पहले तक पांच श्रेणी के कैदियों को उम्रकैद की सजा में 20 वर्ष से पहले कोई रियायत नहीं दिये जाने का प्रावधान था।
पांच श्रेणियों में- एक से अधिक मर्डर करने वाले कैदी, डकैती के दौरान हत्या, हत्या के साथ बलात्कार, आतंकवादी और एक लोक सेवक की हत्या के दोषी शामिल थे। इस तरह के बंदियों की 20 वर्ष की सजा पूरी होने के बाद ही रियायत याचिका पर विचार करने का प्रावधान है। बिहार सरकार ने राजनीतिक लाभ के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए बिना किसी नैतिकता की चिंता के 10 अप्रैल, 2023 को जारी नोटिफिकेशन में बिहार जेल नियमावली, 2012 में संशोधन किया और नियम 481(आइ) (ए) में उल्लेखित वाक्यांश ‘एक लोक सेवक की हत्या’ को हटा दिया।
नैतिकता और लोक सेवकों के हित को ताक पर रख कर लिये गये इस राजनीतिक फैसले को जस्टीफाइ करने के लिए कहा जा रहा है कि इसकी वजह से कई जातियों के अपराधी छूटेंगे। कोई एके आदमी/जाति का मामला थोड़े है! क्या अद्भुत तर्क है? क्या अपनी-अपनी जातियों के अपराधी अब लोगों को इतने प्रिय हो गये हैं? खास बात है कि जिनके लिए बिहार की सरकार को कानून बदलना पड़ा, वे साल भर से भी छोटे अंतराल में तीन बार पैरोल पर जेल से बाहर आ चुके थे। यानी उनको जेल से जरूरी मौकों पर बाहर आने में कोई दिक्कत नहीं थी। फिर सरकार ने और चार साल का वेट क्यों नहीं किया? असल में उनको आगामी चुनाव लड़ाये जाने की तैयारी चल रही है।
उनको न्याय व्यवस्था का विक्टिम बता कर उनकी बिरादरी के वोटों को अपने पाले में करने की भी तैयारी है। हालांकि, जिस पॉलिटिकल लाभ के लिए यह कदम उठाया गया है, उसके नुकसान की गिनती ये लोग नहीं कर पा रहे हैं। जो भी न्यायप्रिय लोग भाजपा की अति के खिलाफ उग्रता से महागठबंधन के पक्ष में माहौल बना रहे हैं, उनकी धार कुंद पड़ जायेगी। राजनीतिक दल अब तक दलितों को हमेशा वोट के लेवल पर दूध-भात समझ लेते हैं।
बहुत से नेता को लगता है कि रात में पैसा बांट दो, सुबह इस कम्युनिटी का वोट मिल जायेगा। लेकिन वे भूल रहे हैं कि दलितों की नयी पीढ़ी में शिक्षा के साथ बाबा साहेब आंबेडकर और महात्मा फुले भी पहुंच रहे हैं। आज उनके अपने पार्सपेक्टिव वाली नयी मीडिया भी है। ऐसे में कानून में संशोधन कर एक अपराधी के चक्कर में दर्जनों अपराधी को बाहर करने की पहल, राजनीतिक लाभ की जगह नुकसानदायक भी हो सकती है। हां, नेता लोग जादे काबिल होते हैं, हो सकता है कि उनका अंकगणित कुछ और कह रहा हो, लेकिन मेरा मत है कि बिहार सरकार का यह कदम गलत है और इसका खामियाजा भी बिहार ही भुगतेगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं