बिरसा मुंडा आंदोलन कब हुआ
कब हुआ था बिरसा मुंडा आंदोलन, जिसने अंग्रेजों की नींव हिला दी थी
बिरसा मुंडा आंदोलन को मुंडा विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। आदिवासी समाज इसे बिरसा उलगुलान कहता है।
इस आंदोलन ने अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी थी। आंग्रेजों के खिलाफ इस विद्रोह की शुरुआत सामंती प्रथा की खिलाफत से शुरू हुई थी, जिसने महज 22 साल बिरास मुंडा के नेतृत्व में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया।
बिरसा मुंडा अपनी नेतृत्व कुशलता के कारण ही इतनी कम उम्र में आदिवासियों के नेता बन गये।
आज आदिवासी समाज उन्हें भगवान मानता है। बिरसा मुंडा को झारखंड की जनजातियां अपना मसीहा मानती हैं।
बिरसा 1893 -94 ई. से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ झंडा बुलंद करने लगे थे। उन्होंने गांव की ऊसर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिगृहीत किए जाने से रोकने के लिए चलाये जा रहे एक अभियान में हिस्सा लिया था।
1895 ई. में बिरसा ने परमेश्वर के दर्शन होने तथा दिव्य शक्ति प्राप्त होने का दावा किया। लोग बिरसा का उपदेश सुनने के लिए एकत्रित होने लगे।
उनकी लोकप्रियता से घबरा कर अंग्रेजों ने बिरसा को 1895 ई. में दो साल के लिए जेल में डाल दिया।
किंतु ब्रिटेन की महारानी की हीरक जयंती के अवसर पर उन्हें जेल से रिहा किया गया। जेल से निकलने के बाद बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में पूरी पूरी ताकत झोंक दी।
धीरे-धीरे उनका आंदोलन बड़ा होने लगा। इससे घबरा कर ब्रिटिश साम्राज्य ने बिरसा और उनकी सेना पर आक्रमण कर दिया।
9 जनवरी, 1900 को झारखण्ड के डोंबारी पर्वत पर बिरसा की सेना एवं अंग्रेजों के बीच मुठभेड़ हुई।
इस युद्ध में अंग्रेजों की फौज उनकी बंदुक का सामना बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी युवाओं ने जमकर किया।
एक ओर जहां अंग्रेज बंदुक और तोप लेकर पहुंचे थे। वहीं बिरसा की सेना जंगली तीर धनुष से उनका मुकाबला कर रही थी।
अंग्रेजों की भारी भरकम फौज और आधुनिक हथियार के मुकाबले बिरसा की जंगली सेना कब तक टिकती।
अंततः बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने पकड़ लिया। फिर उन्हें रांची लाकर जेल में डाल दिया गया। जेल में ही महज 25 वर्ष की उम्र में 1902 में बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गई।
बिरसा मुंडा का जन्म
बिरसा मुंडा का जन्म रांची से 40 किमी दूर खूंटी के निकट अड़की क्षेत्र के एक छोटे से गांव उलिहातू में हुआ था।
यह पूरा इलाका जंगलों से घिरा है। डोंबारी बुरू पहाड़ी यहां से सात किमी दूर है और सामने साफ दिखती है। इसी पहाड़ी पर अंग्रेजों के साथ बिरसा मुंडा का युद्ध हुआ था।
बिरसा मुंडा के विद्रोह के कारणः
ब्रिटिश शासन द्वारा जनजातीय जीवन शैली एवं सामाजिक संरचना और संस्कृति में हस्तक्षेप करना मुंडा विद्रोह का मूल कारण था।
जमीन से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करना इस विद्रोह का दूसरा प्रमुख कारण था। ब्रिटिश भू -राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत संयुक्त स्वामित्व वाली या सामूहिक सम्पत्ति की अवधारणा वाली आदिवासी परम्पराओं, जिसे झारखण्ड में खुण्ट-कट्टी व्यवस्था के नाम से जाना जाता है, को क्षीण किया गया।
आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ईसाई धर्म प्रचारकों की गतिविधियों का भी विरोध हुआ। किंतु जिस बात को लेकर सबसे ज्यादा नाराजगी आदिवासियों में देखी गई वे थे सामंती प्रथा और अंग्रेजों द्वारा थोपे गये सामंतवादी कानून।
ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार, महाजन और ठेकेदारों के एक नए शोषक समूह का उद्भव हो रहा था।
जनजातियां इन्हें “दिकु” कहती थी। आरक्षित वन सृजित करने और लकड़ी तथा पशु चराने की सुविधाओं पर भी प्रतिबन्ध लगाए जाने के कारण आदिवासी जीवन -शैली प्रभावित हुई, क्योंकि आदिवासियों का जीवन सबसे अधिक वनों पर ही निर्भर करता है।
1867 ई. में झूम कृषि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। नए वन कानून बनाए गये। इन सब कारणों ने ही मुंडा विद्रोह को जन्म दिया।
हालांकि सरकार ने मुंडा विद्रोह को दबा दिया, लेकिन यह मुंडा विद्रोह का ही प्रभाव था कि 1908 ई. में छोटानागपुर टेन्सी एक्ट (C.N.T -छोटा नागपुर रैयत या काश्तकारी कानून) पारित हुआ।
इसने खूण्टकट्टी के अधिकारों को मान्यता दी और जबरन बेगारी पर प्रतिबन्ध लगाया। इस कानून के तहत जनजातीय जमीनों का गैर -जनजातीय लोगों को हस्तांतरण बंद कर दिया गया।
जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदानः
बिरसा मुंडा ने मुंडाओं को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया।
बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन 1895 से लेकर 1900 तक चला। इसमें भी 1899 दिसंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर जनवरी के अंत तक काफी तीव्र रहा।
पहली गिरफ्तारी अगस्त 1895 में बंदगांव से हुई। इस गिरफ्तारी के पीछे कोई आंदोलन नहीं था, बल्कि प्रवचन के दौरान उमड़ने वाली भीड़ थी।
अंग्रेज नहीं चाहते थे कि इलाके में किसी प्रकार की भीड़ एकत्रित हो, चाहे वह प्रवचन के नाम पर ही क्यों न हो।
अंग्रेजी सरकार ने बहुत चालाकी से बिरसा को रात में पकड़ लिया, जब वह सोए थे। बिरसा जेल भेज दिए गए।
बिरसा और उनके साथियों को दो साल की सजा हुई। हालांकि जेल से छूटने के बाद बिरसा मुंडा का प्रवचन बंद नहीं हुआ, बल्कि उनका कद और ऊंचा हो गया और वह आदिवासी समाज में मसीहा बन कर उभरे।
अबुआ दिशुम, अबुआ राजः
जमींदारों और पुलिस का अत्याचार भी बढ़ता जा रहा था। मुंडाओं का विचार था कि आदर्श भूमि व्यवस्था तभी संभव है, जब ब्रिटिश अफसर और मिशनरी के लोग पूरी तरह से हट जाएं।
इसलिए, एक नया नारा गढ़ा गया-‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ जिसका मतलब है कि अपना देश-अपना राज।
बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों के लिए सबसे बड़े दुश्मन चर्च, मिशनरी और जमींदार थे।
जमींदारों को भी कंपनी ने ही खड़ा किया था। इसलिए, जब अंतिम युद्ध की तैयारी शुरू हुई तो सबसे पहले निशाना चर्च को ही बनाया गया।
इसके लिए क्रिसमस की पूर्व संध्या को हमले के लिए चुना गया।
24 दिसंबर 1899 से लेकर बिरसा की गिरफ्तारी तक रांची, खूंटी, सिंहभूम का पूरा इलाका ही विद्रोह से दहक उठा था।
इसका केंद्र खूंटी था। इस विद्रोह का उद्देश्य भी चर्च को धमकाना था कि वह लोगों को बरगलाना छोड़ दे, लेकिन वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे।
इसलिए पहले 24 दिसंबर 1899 की संध्या चक्रधरपुर, खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और गुमला का बसिया थाना क्षेत्रों में चर्च पर हमले किए गए।
तीर बरसाए गए। बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू में वहां के गिरजाघर पर भी तीर चलाए गए।
सरवदा चर्च के गोदाम में आग लगा दी गई। इसके बाद चर्च से बाहर निकले फादर हाफमैन व उनके एक साथी पर तीरों से बारिश की गई।
हाफमैन तो बच गए, लेकिन उनका साथी तीर से घायल हो गया। 24 दिसंबर की इस घटना से ब्रिटिश सरकार सकते में आ गई।
इसके लिए धर-पकड़ शुरू हुआ। फिर तो अंग्रेज सरकार युद्ध पर ही उतर आई।
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