होली हमारे देश का अत्यंत प्राचीन पर्व है, जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। वसंत ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव की संज्ञा भी दी जाती है।
हमारे देश के दिग्गज इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था। प्रारंभ में यह पर्व अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है।
इनमें प्रमुख हैं- जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित 300 बीसी यानी आज के 2500 साल पहले के एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है।
संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। कालिदास इनमें अव्वल हैं। पालि, प्राकृत, अवहट्ठ भाषा के साहित्य में भी होली का जिक्र है। हिंदी साहित्य में भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल तक के बड़े कवियों ने होली पर कविता लिखी है।
अमीर खुसरो,विद्यापति और सूरदास से लेकर आधुनिक काल में निराला और केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं लोगों की जुबान पर आज भी हैं। उर्दू की गजलों और शायरी में भी होली की धड़कन महसूस की जा सकती है।
इतिहास के प्रवाह में होली
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं।
सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है।
अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का अंदाज बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।
मंदिरों की दीवारों पर होली के चित्र
प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर रंगोत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16 वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दंपती को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है।
इसी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं।
वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डालते दिखाया गया है। 17वीं शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा प्रताप को होली के अवसर पर अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है।
शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगनाएं नृत्य कर रही हैं और इन सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बेशक हर युग में होली आनंद और भावनात्मक मेल की निशानी रही है।
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